चुनावी भोज पर बर्ड फ्लू का ग्रहण (शब्द बाण-70)

चुनावी भोज पर बर्ड फ्लू का ग्रहण (शब्द बाण-70)

साप्ताहिक व्यंग्य कॉलम ‘शब्द बाण’ (भाग-70)

10 फरवरी 2025

शैलेन्द्र ठाकुर @ दंतेवाड़ा

दीपककी लौ कम करने उतरेविष्णु’

बस्तर में नगरीय निकाय चुनाव भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए करो या मरो वाली स्थिति लेकर आया है। संभाग के सबसे बड़े नगर सरकार यानी नगर पालिक निगम जगदलपुर में पीसीसी अध्यक्ष दीपक बैज के अभिन्न राजनीतिक सखा मलकीत महापौर बनने मैदान में हैं, तो भाजपाई प्रदेशाध्यक्ष किरणदेव के इस गृह नगर में पूरी भाजपा की साख दांव पर लगी हुई है। आलम यह है कि इस हाई प्रोफाइल सीट पर ‘दीपक’ की लौ निस्तेज करने के लिए स्वयं सीएम ‘विष्णु’देव को स्टार प्रचारक बनकर चुनावी रथ पर सवार होना पड़ा है। अब यह तो चुनाव परिणाम ही बताएगा कि किरणदेव वाले ‘संजय’ की किरणें तेज होती हैं, या कांग्रेस वाले ‘दीपक’ की ‘लौ’ जगमगाती है। कुल मिलाकर मामला दिलचस्प रहने वाला है।

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गुपचुप’ डिप्लोमैसी

नगरीय निकायों में सरकार का तीसरा इंजन लाने भाजपा कितनी बेताब है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मुख्यमंत्री के अलावा प्रभारी मंत्री भी नुक्कड़ सभाएं कर रहे हैं। प्रभारी मंत्री केदार कश्यप ने तो फिलहाल जेल में बंद कांग्रेसी दिग्गज लखमा दादी के इलाके में कैम्प कर चुनावी सभाओं को संबोधित कर ली है। इसके बाद दंतेवाड़ा की गलियों में पहुंचकर नुक्कड़ सभाएं की। दुकानों में पहुंचकर वोट मांगे। बस स्टैंड में प्रभारी मंत्री ने गुपचुप खाकर ठेला वाले को गदगद कर दिया। अन्य ठेला- खोमचे वाले भी अपने बीच मंत्री को पाकर अभिभूत दिखे। कभी कांग्रेसी नेता स्व महेंद्र कर्मा के गढ़ रहे दंतेवाड़ा में प्रभारी मंत्री की यह ‘गुपचुप डिप्लोमैसी’ क्या रंग दिखाती है, यह तो मतदान के बाद ही पता चलेगा, लेकिन बागी उम्मीदवारों ने फिलहाल पार्टी की नाक में दम कर रखा है। कुछ समीकरण बिगाड़ने वाले वोट कटुआ की भूमिका में हैं, तो कुछ जीतने की स्थिति में।
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ओबीसी की नाराजगी
भाजपा ने आरक्षण विसंगति के चलते बस्तर में सीटें छिन जाने से नाराज ओबीसी वर्ग को मनाने के लिए बड़ी सांत्वना की घोषणा की थी। कहा गया कि अनारक्षित सीट पर ओबीसी उम्मीदवारों को प्राथमिकता दी जाएगी। लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं हुआ। एप्रोच और राजनीतिक गोटी फिट करने का दांव ही चला। दंतेवाड़ा में जिला पंचायत की एक अनारक्षित सीट पर भाजपा से ओबीसी के उम्मीदवार उतारे जाने की प्रबल संभावना थी, लेकिन ओबीसी की बजाय दूसरी आरक्षित केटेगरी की एक उम्मीदवार को टिकट दिए जाने से ओबीसी वर्ग में खासी नाराजगी है। सरकार बदलते ही कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हुए एक बड़े नेता ने तो पार्टी की उम्मीदवार के खिलाफ अपनी पत्नी को चुनाव मैदान में उतार दिया है। इसके बाद जोर-शोर से प्रचार करते हुए पूरी ताकत झोंक दी है। अब इस नव प्रवेशी नेता की बगावत पर पार्टी कड़ा कदम उठाने का साहस कर भी पाएगी या नहीं, यह कहना मुश्किल है। वहीं, दूसरी तरफ ओबीसी कैटेगरी के कुछ उम्मीदवार भी चुनाव मैदान में उतरे हुए हैं। दोनों ही पार्टियों से नाराज ओबीसी की बाहुल्यता वाली इस सीट पर जीतना भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए बड़ी चुनौती है। अब देखना यह है कि इस सीट पर भाजपा चुनाव जीत पाती है या हारकर अपनी फजीहत करवाती है।

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रोजगार सहायक बनाम सचिव की नौकरी

सुकमा जिले में कई अंदरूनी पंचायतों में रोजगार सहायक ही पंचायत सचिव का प्रभार संभाले हुए हैं। वहीं, पंचायत सचिव पोस्टिंग वाली पंचायत की बजाय मुख्यालयों में बैठकर आराम फरमा रहे हैं। सरकार ने शुरुआती दौर में ग्राम पंचायत के ही पढ़े -लिखे नौजवानों को 500 रुपए में सचिव नियुक्त किया था। बाद में सभी को गृह पंचायतों से हटाकर दूसरे पंचायतों में पदस्थ कर दिया था, ताकि वित्तीय और स्थानीय अन्य दिक्कतों से दूर रह सकें। लेकिन मनरेगा के लिए नियुक्त रोजगार सहायकों की नियुक्ति में यह नियम लागू नहीं किया। इसका साइड इफ़ेक्ट यह हो रहा है कि मनरेगा में बड़े पैमाने पर गड़बड़ियां होने लगी हैं। जनपद पंचायतों का रोजगार सहायकों पर सीधा नियंत्रण भी नहीं रहता। जवाबदेही तय नहीं होने से अक्सर रोजगार सहायक अपना फोन बंद कर देते हैं, या फिर अफसरों की कॉल ही रिसीव नहीं करते।
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लाल मिट्टी से हो रहे लाल
दक्षिण बस्तर में बैलाडीला की खदानों से निकलने वाले लौह अयस्क के अपशिष्ट लाल मिट्टी से कई लोग ‘लाल’ हुए जा रहे हैं। जहां कहीं भी खाली जगह दिखती है, वहां ले जाकर लाल मिट्टी को डंप कर दिया जाता है। इसमें ट्रांसपोर्टिंग यानी किराया तो मिलता ही है, मिट्टी को जमीन में दफन करने का अलग से खर्च भी कंपनी से मिल जाता है। यानी आम के आम गुठलियों के दाम। सरकारी विकास कार्य व समतलीकरण कार्य हो तो फिर क्या कहना! समझिए कि पांचों उंगलियां घी में। लेकिन इस चक्कर मे कई ग्रामीण सड़कों को भारी-भरकम ओवरलोड वाहनों से रौंदकर पाताल लोक पहुंचाया जा रहा है। दंतेवाड़ा से लेकर सुकमा जिले तक लाल मिट्टी की धमक पहुंची हुई है। प्रशासन अब तक इन सड़कों को लेकर कोई जवाबदेही ट्रांसपोर्टरों पर तय नहीं कर पाया है।

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बारसूर रोड की फिसलन
दक्षिण बस्तर की ऐतिहासिक नगरी बारसूर तक जाने वाली सड़क किसी किवदंती से कम नहीं लगती है। गीदम-बारसूर के बीच 20 किमी की इस सड़क पर पूरी किताब लिखी जा सकती है। कहने को तो यह स्टेट हाइवे -5 का हिस्सा है, लेकिन इसकी खस्ता हालत देखकर यकीन नहीं होता। कभी जोगी शासनकाल में वाड्रफनगर से मरियागुड़म मार्ग, फिर रमन शासनकाल में उत्तर-दक्षिण कॉरीडोर सड़क, फिर भूपेश कका के कार्यकाल में देवी महामाया-दंतेश्वरी शक्तिपीठ पथ के नाम से इसे डेवलप करने की बात हुई। कई योजनाओं का करोड़ों रुपए इस पर खप चुका, लेकिन आज तक बारसूर से गीदम के बीच सड़क उतनी चिकनी नहीं हो सकी, जितनी होनी चाहिए।
जब-जब पीडब्ल्यूडी के अफसरों को अतिरिक्त खर्च मैनेज करना होता है, एटीएम की तरह इस सड़क के किसी एक हिस्से की मरम्मत, रिनीवल कर पैसे निकाल लेते हैं। इस सड़क की हालत किसी मेडिकल कॉलेज के उस मरीज की तरह हो गई है, जिसकी नब्ज कई नौसिखिए ट्रेनी डॉक्टर आकर पकड़ते हैं, लेकिन इलाज कोई नहीं करता है। मरीज इस धोखे में रहता है कि उसकी पूछ-परख ज्यादा हो रही है।

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चुनावी भोज के समय बर्ड फ्लू

चुनावी सीजन में पक्षियों में बर्ड फ्लू जैसी संक्रामक बीमारी फैलने से उम्मीदवारों की टेंशन बढ़ गई है। चुनावी भोज में चिकन पर अविश्वास बढ़ने का खतरा जो है। कमबख्त बर्ड फ्लू को भी अभी आना था। चिकन खाने से कतराने वाले नॉनवेज वोटरों के लिए अब मजबूरन बकरा भात का इंतजाम करना पड़ सकता है, जो काफी महंगा साबित होने वाला है। चुनावी और शादी के सीजन में बकरों का भाव वैसे ही बढ़ा हुआ है। धर-पकड़ के बीच चुनावी सुरा चेपटी का खर्च भी कोई कम नहीं होने वाला।

वैसे, मैनेजमेंट के खांटी अनुभवी लोग बताते हैं कि चुनावी भोज और चेप्टी के इंतजाम में समय सीमा का ध्यान रखना बेहद जरूरी होता है। इसकी भी वेलिडिटी होती है। काफी समय पहले करवाया गया भोज वोट में तब्दील हो जाए , इसकी गारंटी नहीं होती। भोजन छोटी आंत और बड़ी आंत में पचने के बाद लोग भूलने लगते हैं। इसीलिए समझदार लोग मतदान से पहले वाले 36 घण्टे के भीतर करवाते हैं, जो काफी ‘गुणकारी’ और ‘फलदायक’ होता है।

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