जलेबी जैसे सीधे अफसर.. (शब्द बाण -85)

जलेबी जैसे सीधे अफसर.. (शब्द बाण -85)

साप्ताहिक  व्यंग्य कॉलम ‘शब्द बाण’ (भाग-85)

25 मई 2025

  ✍ शैलेन्द्र ठाकुर । दंतेवाड़ा

बेरोजगार हुआ आरईइस विभाग

सरकार ने बेरोजगार इंजीनियरों को काम देने की योजना भले ही चला रखी हो, पर दक्षिण बस्तर में आरईएस यानी ग्रामीण अभियांत्रिकी सेवा विभाग खुद लंबे अरसे से बेरोजगार बैठा हुआ है। विभाग के पास वर्षों तक कोई खास काम नहीं था, अब इसके दिन फिरते दिख रहे हैं। वैसे यहां जिला निर्माण समिति ने पीडब्ल्यूडी यानी लोक निर्माण विभाग और आरईएस जैसे तकनीकी विभागों को बेरोजगार बनाया हुआ है। सौंदर्यीकरण से लेकर तमाम भवनों का निर्माण कर रही जिला निर्माण समिति की अगुवाई कभी पीएचई यानी लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी के इंजीनियर करते हैं, तो कभी जल संसाधन विभाग के इंजीनियर। जबकि मूलतः पीएचई विभाग पेयजल संबंधी कार्यों के संपादन में, तो वहीं जल संसाधन विभाग नहर-बांध जैसे स्ट्रक्चर बनाने में विशेषज्ञ होता है। यानि जिसे जो काम करना है, उससे वह काम नहीं लिया जाता है।
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शनिवार वाली छुट्टी कैंसल
देर से ही सही, पर अब 5 डे वीक यानी सप्ताह में सिर्फ 5 दिन काम करने वाली कार्य संस्कृति के साइड इफ़ेक्ट नई सरकार को समझ में आने लगे हैं। पुलिस विभाग ने शुरुआत करते हुए यह सिस्टम ही खत्म कर दिया है। बाकी विभागों में भी शनिवार की छुट्टी जल्द ही खत्म होने के संकेत हैं। यानी अब फिर से पुरानी कार्य संस्कृति लौटेगी और फाइलों के सरकने की रफ्तार बढ़ेगी।
पिछली कांग्रेस सरकार ने इसकी शुरुआत की थी। जिन कर्मचारियों को खुश करने की गरज से ऐसा किया गया था, उन्हीं कर्मचारियों ने चुनाव में कांग्रेस की पतंग काट दी थी।
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लाठी भांजने वाले फूल भेंट कर रहे

जी हां। पुलिस कर्मी जिन हाथों से लाठियां भांजने और चालान काटने को लालायित रहते हैं, उन्हीं हाथों से दंतेवाड़ा में दुकानों में पहुंचकर व्यापारियों को फूल भेंट करते देखा जा रहा है। संजय दत्त स्टारर फ़िल्म मुन्ना भाई एमबीबीएस की गांधीगिरी से प्रेरित होकर पुलिस ने यह तरीका अपनाया है। दरअसल, सड़क पर सामान फैलाकर रखने और गाड़ियों को सड़क पर पार्किंग करने वाले दुकानदारों को समझाईश देने ट्रैफिक पुलिस ने यह गांधीगिरी शुरू की है। अब देखना यह है कि फूल से दिए गए संदेश का क्या और कितना असर होता है?
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डीएमएफ शाखा के पारदर्शी दरवाजे

दंतेवाड़ा कलेक्ट्रेट की डीएमएफ शाखा में इन दिनों कांच के पारदर्शी दरवाजे लगाए जा रहे हैं, जो लोगों के लिए कौतूहल का विषय है। सबसे ज्यादा धन वाली इस शाखा में दरवाजे तो इसकी प्रतिष्ठा के अनुरूप होने ही चाहिए, लेकिन दरवाजे जैसी ही पारदर्शिता इस सिस्टम में भी आ जाए तो क्या कहने। इस सिस्टम की ऑयलिंग-ग्रीसिंग की जरूरत ज्यादा है। लोगों को चक्कर कटवाने और फाइलों को लंबे समय तक दबाकर रखने वाले इस शाखा के स्टाफ का भी फेरबदल हो जाए, तब शायद सिस्टम में सुधार हो।

इस शाखा में अपने ही खुद के संविदा इंजीनियर नियुक्त हैं, जो हर फ़ाइल पर फील्ड में जाकर नाप-जोखकर वेरीफिकेशन करते हैं, लेकिन इस दोहरे वेरीफिकेशन के चक्कर में भुगतान की फाइल महीनों अटकी हुई रहती है। जबकि इस्टीमेट बनाने से लेकर एमबी रिकॉर्ड करने और पूर्णता प्रमाणपत्र जारी करने का काम भी दूसरे तकनीकी विभाग के सब इंजीनियर व एसडीओ स्तर के सरकारी इंजीनियर पहले से कर चुके होते हैं। कुल मिलाकर एक सरकारी तंत्र को दूसरे सरकारी तंत्र पर ही भरोसा नहीं रह गया। यह भी अजीब बात है कि सीसी जारी करने वाले  रेगुलर एसडीओ द्वारा प्रमाणित तकनीकी कार्यों की वैधानिकता को डीएमएफ के संविदा व अस्थाई इंजीनियर नकारने में सक्षम हो गए हैं।

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पुल पर कैसे चढ़े कोई !

डीएमएफ शाखा के मापदंड हर अफसर के हिसाब से बदलते रहते हैं। पिछले साहब ने इस्टीमेट से मिट्टी-मुरुम के काम पर कैंची चलाने की सख्त हिदायत दे दी थी। इसके बाद से काफी ना नुकुर और रीडिंग लेंस से परीक्षण के बाद पुल-पुलिया निर्माण के लिए पैसे तो रिलीज कर दिए जाते हैं, लेकिन पुलिया में मुरुम-मिट्टी फिलिंग का पैसा देने से साफ इंकार कर दिया जाता है। इसका साइड इफ़ेक्ट ये हुआ है कि निर्माण एजेंसियों ने सिर्फ कांक्रीट वाला स्ट्रक्चर तैयार करने तक खुद को सीमित कर लिया है। उनका कहना है कि एस्टीमेट में प्रावधान के बाद भी राशि न मिले तो भला कोई जेब से क्यों भरे? अब पुल-पुलिया बनने के बाद भी इन पर गाड़ियां नहीं चढ़ पा रही हैं। कई जगह पुल तक एप्रोच रोड ही नहीं बन पाए हैं। अब आम जन परेशान हैं कि सीढ़ी लगाकर पुल पर चढ़ें, या खुद लकड़ी के फट्टे बिछाकर।

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स्पीड के साथ पैग लिमिट भी जरूरी

आपने अक्सर सड़कों के किनारे पर स्पीड लिमिट वाला बोर्ड लगा हुआ देखा होगा, लेकिन मदिरा प्रेमियों के लिए पैग लिमिट वाले बोर्ड भी लगवाने की जरूरत दंतेवाड़ा के नए रेल्वे अंडरब्रिज मार्ग पर महसूस की जा रही है। इस सड़क का एप्रोच रोड किसी सर्पीली घाटी की तरह बनाया गया है, जिस पर से होकर सही सलामत मेन रोड तक पहुंचना किसी वीडियो गेम खेलने से कम नहीं लगता है। किसी ने ज्यादा पी रखी हो, तो फिर गड़बड़ी होना तय है। वैसे तो किसी भी सड़क पर मदिरा पीकर गाड़ी चलाना कानूनन जुर्म है, लेकिन मदिरा सेवन पर लगाम कसने का कोई सिस्टम न हो तो कोई क्या करे? स्पीड की न सही, पैग की लिमिट तय कर दी जाए। चाहे वो लिमिट एमएल में लिखी हुई हो या फिर पैग में।
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दामाद महिमा ..
पूरा बस्तर इन दिनों शादियों के सीजन में व्यस्त है, तो वहीं राजनीतिक गलियारे में दामाद की आव भगत का मामला सुर्खियों में है। राजकीय दामाद को चित्रकोट में मुर्गा -भात खिलाने का खर्च उठाने को लेकर यह बवाल शुरू हुआ, जो थमने का नाम नहीं ले रहा।
कांग्रेसियों ने तो पीसीसी अध्यक्ष बैज की अगुवाई में मुर्गा, बकरा और दारू की बोतल लेकर न सिर्फ विरोध प्रदर्शन कर डाला, बल्कि अफसर को मुर्गा-बकरा-दारू भी भेंट कर आए। वहीं दूसरी तरफ भाजपाइयों ने भी जवाबी हमला शुरू कर दिया है। कोरोना काल में असम से आए कांग्रेसी मेहमानों को चित्रकोट में ठहराने का मामला याद दिलाने लगे हैं।
खैर, दामाद सरकारी हो या निजी, सत्कार तो होना ही चाहिए।
अब यह तो उस अफसर की गलती है, जिसने सत्कार का खर्च स्थानीय समूह के मत्थे पर मढ़ने की कोशिश की, वह भी पीसीसी अध्यक्ष के गृह क्षेत्र में।
छत्तीसगढ़ में दामाद को दमाद बाबू दुलरवा ऐसे ही नहीं कहा जाता है। पिछली कांग्रेस सरकार में दक्षिण बस्तर के एक कलेक्टर स्वयं सीएम के दामाद थे, जो विधायक, मंत्री की भी नहीं सुनते थे।

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जलेबी जैसे सीधे अफसर
बस्तर के एक जिले में पदस्थ एक आबकारी अफसर का नाम बहुचर्चित शराब घोटाले की लिस्ट में है। केस चलाने की अनुमति भी राज्य सरकार से मिल चुकी है। इसके बावजूद सरकार ने बड़ी जिम्मेदारी दे रखी है। जबकि शराब घोटाले के मुख्य आरोपियों में शामिल “एपी” के दाहिने हाथ के रूप में पूर्व में काम करने की चर्चा सारे स्टाफ में है। खुद को ‘जलेबी’ जैसा सीधा और पाक साफ बताने वाले इस अफसर की कारगुजारियों से त्रस्त स्टाफ उनकी विदाई का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। अब देखना यह है कि यह विदाई ट्रांसफर से होती है या फिर गिरफ्तारी से। कुछेक ने तो साहब के ‘मधुर’ और ‘नम्र’ वचनों को सहेज कर रखा हुआ है। आबकारी जैसे विभाग का अफसर न खाए-पीए, यह बात हज़म नहीं होती। हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और…
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शैलेन्द्र ठाकुर की कलम से 

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