साप्ताहिक व्यंग्य कॉलम शब्द बाण (भाग-72)
23 फरवरी 2025
शैलेन्द्र ठाकुर @ दंतेवाड़ा
नगरीय निकाय चुनाव होते ही भाजपा पक्ष के सभी नव निर्वाचित पार्षद महाकुंभ स्नान के लिए प्रयागराज रवाना हो गए। कुंभ स्नान की ऐसी तत्परता किसी पाप-पुण्य के स्तर को मेंटेन करने के लिए नहीं दिखाई गई है, बल्कि उपाध्यक्ष चुनाव प्रभावित करने विपक्ष के किसी भी संभावित तिकड़म, खरीद-फरोख्त या हाईजैकिंग से पार्षदों को बचाने की कवायद है। संख्या बल के हिसाब से भाजपा उपाध्यक्ष बनाने की स्थिति में तो है, लेकिन बाउंडरी लाइन के करीब जाकर कैच आउट होने की आशंका भी बनी हुई है। बीजेपी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इस बार उपाध्यक्ष बनने के लिए कोई अनुभवी पार्षद उपलब्ध नहीं है, वरना महाकुंभ स्नान के लिए पार्षदों को भेजने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
—————-
बागियों की बल्ले-बल्ले
दक्षिण बस्तर में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में पार्टी के अधिकृत प्रत्याशियों के खिलाफ ताल ठोंकने वाले कुछ बागियों ने समीकरण बिगाड़ दिया। कुछ न तो खुद जीते, न ही पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार को जीतने दिया। यानी हम तो डूबे सनम, तुम्हें भी ले डूबे। इसका फायदा तीसरी पार्टी को हुआ। हालांकि चुनाव में पार्टी सिंबल नहीं होने की वजह से बागियों पर अनुशासन का डंडा चलाना मुश्किल है। इसी लूप होल का फायदा उठाकर लोग अपनी राजनीतिक कश्ती बचा ले गए। कुछ ऐसे भी हैं, जिन्होंने बगावत कर चुनाव जीत लिया है और पार्टी के पास भी उन्हें अपनाने के अलावा कोई चारा भी नहीं बचा है। आखिर, अध्यक्ष-उपाध्यक्ष पद के लिए संख्या बल की मजबूरी जो है। कुल मिलाकर बागियों की बल्ले-बल्ले हो गई है।
———–
चुनाव खत्म, अब काम शुरू
आखिरकार पंचायत चुनाव के तीसरे व अंतिम चरण का भी मतदान समाप्त हो ही गया। अब फिर से कार्य संस्कृति की तरफ लौटने का समय आ गया है। लेकिन हरेक शनिवार की छुट्टी वाला मसला हल होता नहीं दिख रहा है। भूपेश सरकार ने कर्मचारियों को साधने यह परंपरा शुरू की थी, लेकिन इसके साइड इफ़ेक्ट ज्यादा नज़र आ रहे हैं। कार्य संस्कृति पटरी से उतर गई है। काम करने वालों को छुट्टी का कोई फायदा नहीं मिला, कुछ निठल्ले और आराम पसंद लोगों की बल्ले-बल्ले हो गई। इसके बाद भी भाजपा सरकार इस छुट्टी पर पुनर्विचार करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है।
—————
शांतिपूर्ण चुनाव से राहत
पंचायत चुनाव इस बार शांतिपूर्ण तरीके से निपटने से पुलिस और प्रशासन ने राहत की सांस ली है। पढ़े-लिखे लोगों की आमद इस बार ज्यादा हुई है, जिससे पंचायतीराज व्यवस्था और मजबूत होने के आसार बढ़े हैं, लेकिन स्थानीय चुनाव हमेशा की तरह आपसी मनमुटाव व परिवारों में दरार लेकर आ गया है। शायद ये जख्म आने वाले लंबे समय तक बने रहें। वहीं, महिला आरक्षित व मुक्त सीटों के रोटेशन से एक नई परंपरा भी शुरू हुई है। कई दिग्गजों को क्षेत्र बदलने या श्रीमती जी को चुनाव में उतारने की नौबत आई है। लेकिन अस्थायित्व वाला भाव होने से क्षेत्र के विकास के लिए मन लगाकर काम कर पाएंगे, यह कहना मुश्किल है।
———–
ईवीएम पर ठीकरा
इस बार नगरीय निकाय चुनाव में ईवीएम के इस्तेमाल को लेकर लोगों में तरह-तरह की चर्चा का दौर जारी है। पहले तो ईवीएम को लेकर आरोपपत्र रिजल्ट से पहले तैयार हो चुके थे, लेकिन पूरे राज्य में नगर सरकार में भाजपा की सुनामी आई और कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। कांग्रेस के बड़े नेताओं ने खिलाड़ी भावना से ओतप्रोत होकर यह स्वीकार भी लिया कि सरकार जिसकी होती है, स्थानीय चुनाव में उसका दबदबा होना स्वाभाविक है, लेकिन अब एक नई बहस छिड़ती नजर आ रही है। अब लोगों का ये तर्क दबी जुबान सामने आ रहा है कि कुछ निकायों में विपक्ष के पार्षद ज्यादा संख्या में जीते, और उपाध्यक्ष बनाना तक मुश्किल हो गया, लेकिन अध्यक्ष के पद पर भाजपा की जीत कैसे हो गई? ये सवाल तो बनता ही है।
————–
सचिव बने सरपंच!
जी हां। कहा गया है कि शौक बड़ी चीज होती है। दक्षिण बस्तर में इस बार नगरीय निकाय और पंचायत चुनावों में सरकारी नौकरी छोड़कर माननीय बनने की होड़ कुछ ज्यादा ही मची हुई थी। गीदम नगर पंचायत में ऐसे दो कर्मचारी नेताओं का दांव चल गया और वे पार्षद चुने जा चुके हैं। इसी तरह पुलिस के एक जवान ने नौकरी छोड़कर जिला पंचायत सदस्य और सरपंच पद के लिए किस्मत आजमाई है। रिजल्ट आना अभी बाकी है। वहीं, एक पंचायत सचिव ने 3 दशक पुरानी नौकरी छोड़कर सरपंच का चुनाव लड़ा और खबर है कि इस पूर्व सचिव की जीत हो गई है। यानी सचिव महोदय अब सरपंच महोदय कहलायेंगे।
————–
चुनावी हिंसा… हिंसा न भवति..
इस बार निकाय और पंचायत चुनाव में बड़े शहरों की तरह दबंगई और मारपीट के कई मामले सामने आए हैं। कुछ जगहों पर कांग्रेसी पक्ष ने सत्ता पक्ष पर मारपीट के आरोप लगाए। वहीं, कांग्रेसियों के हाथों भाजपाइयों के पिटने की घटनाएं कहीं ज्यादा हैं। पीड़ित भाजपाई ने अपना दुखड़ा रोते कहा कि अपनी ही सरकार रहकर भी पार्टी कार्यकर्ता सुरक्षित नहीं हैं, न ही कोई एक्शन हो रहा है। इससे तो कांग्रेस सरकार ही ठीक थी। कम से कम ‘महोदय’ को ऐसे हुड़दंगियों से निपटने फ्री हैंड मिला हुआ था।
चलते-चलते….
सरकारी डॉक्टरों की निजी प्रैक्टिस पर रोक सरकार ने लगवा तो दी है, लेकिन इसके दोनों पहलुओं पर गंभीरता से नहीं सोचा। बड़े शहरों के लिए यह आदेश उचित हो सकता है, लेकिन हर जगह यह व्यवहारिक नहीं होगा।
अब दक्षिण बस्तर जैसे डॉक्टरों की कमी वाले इलाके में हॉस्पिटल की ओपीडी, आपातकालीन सेवा के भरोसे रह गए, तो समझो काम तमाम होना है। ड्यूटी टाइम के बाद किसी डॉक्टर ने सरकारी लाठी के डर से किसी मरीज को देखने से साफ मना कर दिया, तब क्या होगा…?? वैसे इसकी शुरुआत भी हो गई है।