साप्ताहिक व्यंग्य कॉलम भाग-55 (4 नवंबर 2024)
शैलेन्द्र ठाकुर @ दंतेवाड़ा
विकास पर सेंसरशिप
जिले में पंचायतों के विकास और निर्माण कार्यों पर सेंसरशिप की चर्चा जोरों पर है। कहते हैं किसी काम का इस्टीमेट भी बनवाना हो, तो पहले किसी न किसी माननीय से परमिशन लो, फिर एप्रूवल के आधार पर इंजीनियर इस्टीमेट बनाएंगे। अब बेचारे ग्रामीण पंच-सरपंच इतना साहस कहां से जुटाएं? माननीयों के बीच इस खींचतान से लोग खासे परेशान हैं। खुद भाजपाई कहने लगे हैं- कांग्रेसी शासनकाल में भी इतनी सेंसरशिप नहीं थी। कहते हैं कि पहले पैसे लेकर कम से कम काम तो करते थे। अब न तो पैसे लेते हैं, और न ही काम करते हैं। ऐसे में रोजी-रोटी का जुगाड़ कैसे हो?
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मीडिया से दूरी
विधानसभा चुनाव खत्म होने के बाद से दक्षिण बस्तर में राजनीतिक पार्टियों ने गज़ब का चोला पहन लिया है। यहां मीडिया से दूरी बनाते हुए काम किया जा रहा है। सौजन्य-शिष्टाचार, होली-दीवाली मिलन, सब गायब हैं। न तो गंगा-जमुनी तहज़ीब को बढ़ावा देने ईद पर दावत ए इफ्तार हो रही है, न होली-दीवाली पर मिलन समारोह। धरना-प्रदर्शन से लेकर प्रेस वार्ता तक की विज्ञप्ति जारी हो रही है। किसी ग्रुप में सूचना शेयर कर औपचारिकता निभा दी जाती है। इस नए ट्रेंड से न तो नए कार्यकर्ता पत्रकारों को पहचान पा रहे हैं, न ही पत्रकार कार्यकर्ताओं को।
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कहीं का रोड़ा, कहीं का पत्थर
सौंदर्यीकरण के नाम पर मां दंतेश्वरी मंदिर परिसर से अच्छे खासे डोम शेड बड़ी बेरहमी से उजाड़ दिए गए। इसके बाद नया भारी-भरकम स्ट्रक्चर बनवाया गया है, जिसकी चकाचौन्ध से लोगों की आंखें चौन्धिया गई हैं, लेकिन पुराने स्ट्रक्चर में लगी महंगी प्रोफाइल शीट, लोहे के ट्रस कहां गायब हो गए, इसका कोई हिसाब नहीं है। कायदे से इसकी भी स्क्रैप में नीलामी होनी थी, लेकिन सुनते हैं कि इस मटेरियल का इस्तेमाल दूसरी नई बिल्डिंग में किया गया है। यानी आम के आम गुठलियों के भी दाम। चूना लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा आए की तर्ज पर एक बिल्डिंग में यही पुरानी शीट छाई जा रही है।
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ठिकाना बदल कर जमाई चौसर
वैसे तो हर दीवाली सीजन में शकुनि मामा वाले चौसर यानी जुए के फड़ सजते रहे हैं, पर इस बार जिला मुख्यालय के सामाजिक एकता परिसर का फड़ कुछ ज्यादा ही चर्चित हो गया। महाभारत की तरह इसकी पूरी व्यूह रचना रची गई थी। एक अभिमन्यु ने ताक कर तीखा बाण भी चलाया, लेकिन चक्रव्यूह ध्वस्त नही कर पाया। फिर क्या था, आचार्य ने शकुनि मामा के शागिर्दों के लिए चक्रव्यूह की जगह इस बार कमल व्यूह की रचना कर दी। बस थाना क्षेत्र बदल गया। फिर रात भर चकरी चलती रही। हर चकरी पर जीएसटी कलेक्शन होता रहा। 52 पत्तियां फेंटी जाती रहीं। बेख़ौफ़ गेम जारी रहा। आखिर ‘अभयदान’ भी कोई चीज होती है।
वैसे यह सोचने वाली बात है कि जिस दौर में ‘अंदरवाले दादा’ तक पनाह मांगते, छिपते फिर रहे हों, तब शकुनी मामा के शागिर्दों पर पुलिस की नजर न पड़े, यह भला कैसे मुमकिन है?
भाई! आखिर ऊपर वाले को “जवाब” भी तो देना पड़ता है।
अताउल्लाह खान के सुपरहिट एलबम की ये लाइनें याद आती हैं-
“अंधेरा मांग रहा था रौशनी की भीख…
ऐसे में हम अपना घर न जलाते तो क्या करते ??”
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भाजपाई रंग में रंगी कुर्सियां
नगरीय निकाय के गली-मोहल्लों में अचानक बेंच-कुर्सियां सड़क किनारे लग गई हैं। सरकारी खर्च पर भाजपाई रंग में रंगी इन कुर्सियों से लोगों को बड़ी सुविधा हो रही है। कम से कम मोबाइल पर आंख गड़ाए भटकते रहने वालों को बैठ कर यह आनंद उठाने का ठिकाना जो मिल गया है। कुर्सी का रंग देखते हुए कांग्रेसी तो इन पर बैठने से तौबा कर ही रहे हैं, सरकारी कर्मचारी भी हिचकिचाने लगे हैं। सभी इस रंग के उतरने के इंतजार में हैं।
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ठेकेदारों की फीकी दीवाली
दक्षिण बस्तर में सरकारी विभागों के ठेकेदार भुगतान नहीं मिलने से खासे परेशान हैं। यूनियन बाजी से लेकर हर पैंतरे आजमाकर देख चुके ठेकेदारों का दर्द कम नहीं हो रहा है। उनका मानना है कि यह सरकार सिर्फ काम करवाती है, भुगतान नहीं। महतारी वंदन जैसी लोक लुभावन योजना की भरपाई ऐसे होगी, इसका अंदाज़ा भी नहीं था। यही कारण है कि इस बार की दीवाली भी फीकी रही। ठेकेदारों को भुगतान नहीं मिलने का असर हर सेक्टर में दिखा। धान खरीदी सीजन से पहले दीवाली मनाने को लेकर किसानों में भी उत्साह कम नज़र आया।
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राज्योत्सव का खर्च
राज्योत्सव मनाने को लेकर ज्यादातर विभाग प्रमुख असमंजस की स्थिति में हैं। दिनोंदिन बढ़ती जा रही ऑनलाइन निगरानी से अफसरों के हाथ बंधे हुए हैं। उस पर राज्योत्सव का स्टॉल सजाने का खर्च कैसे वहन हो, इसकी चिंता में अफसर दुबले हो रहे हैं। मस्टररोल और कैम्पा योजना से अब तक सब कुछ मैनेज करते आ रहे वन महकमे की हरियाली भी गायब होने लगी है। ई-कुबेर पोर्टल ने रेंजरों की आर्थिक सेहत बिगाड़ दी है। ऐसी ही स्थिति दीगर विभागों की भी है। देखना यह है कि अफ़सर इस सिस्टम में छेद कब तक तलाश पाते हैं।
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चलते-चलते…
जिला हॉस्पिटल में आंखों की सर्जरी में इन्फेक्शन मामले में जांच करने कांग्रेस का दल पहुंचा। विधायक-पूर्व विधायकों के जांच दल को प्रोटोकॉल के अनुरूप सरकारी सर्किट हाऊस में ठहरने व भोजन की व्यवस्था की गई। कुछ कांग्रेसियों की पीड़ा थी कि भोजन में सब्जी के नाम पर सिर्फ दाल और आलू-बरबटी की फीकी सब्जी परोसी गई। इस पर भाजपाई खूब मजे से चुटकी ले रहे हैं कि अरे भाई! सरकार के खिलाफ़ ही जांच करने आएंगे, तो कोई भला बिरयानी कैसे परोसेगा? सरकार में रहने और न रहने का कोई तो फर्क होगा ही।