अनुकंपा नियुक्ति में भी उगाही… (शब्द बाण- 53)

अनुकंपा नियुक्ति में भी उगाही… (शब्द बाण- 53)

साप्ताहिक व्यंग्य कॉलम ‘शब्द बाण’ (भाग-53)

(20 अक्टूबर 24)

शैलेन्द्र ठाकुर @ दंतेवाड़ा (20 अक्टूबर 24

अनुकंपा नियुक्ति यानि किसी शासकीय सेवारत कर्मचारी या विशेष परिस्थिति में मृत व्यक्ति के परिजनों को मिलने वाली नौकरी। सरकार की इस सदाशयता के पीछे दिवंगत जन के परिवार को सहारा देना ही मूल उद्देश्य होता है। लिहाजा, इस नियुक्ति के लिए किसी तरह के एप्रोच या रिश्वत की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए, लेकिन दक्षिण- पश्चिम बस्तर के कुछ दफ्तरों में ऐसे धनपशु बैठते हैं, जो अनुकंपा नियुक्ति की आस में भटकने वाले परिजनों से ही बतौर रिश्वत मोटी रकम वसूल लेने में पीछे नहीं रहते। इस पर इनकी अंतरात्मा नहीं कचोटती है, और न ही हाथ कांपते हैं। चढ़ावा नहीं देने पर पोस्ट खाली नहीं होने या तमाम तरह के बहाने बनाकर टरकाया जाता है। अब परिजन भी मजबूर हो जाते हैं कि भागते भूत की लंगोटी ही पैसे देकर पकड़ लें, वरना सरकारी नौकरी आसानी से मिलती कहां है?

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मरीज का फॉर्म भरना जरूरी

अभिनेता संजय दत्त की हिट फिल्म मुन्नाभाई एमबीबीएस का वह सीन और डायलाग जरूर आपको याद होगा, जिसमें मुन्नाभाई कहता है कि मरते हुए मरीज का ईलाज करना पहले जरूरी है, या फिर फॉर्म भरना। ठीक ऐसी ही स्थिति जिला हॉस्पिटल दंतेवाड़ा में दिखती है। इलाज से पहले ओपीडी पर्ची बनवाने जाने पर मरीज को सबसे पहले आभा एप डाउनलोड करवाया जाता है। इसके बाद ही पर्ची बनाई जाती है। इसके लिए मरीज के पास स्मार्टफोन होना चाहिए, जिसमें एप डाउनलोड हो सके। कम शिक्षित और निरक्षर मरीजों के लिए यह स्थिति काफी कष्टदायक हो जाती है, जो बड़ी मुश्किल से हिंदी समझ पाते हैं।  स्मार्टफोन तो दूर, बटन वाला साधारण मोबाइल तक नहीं रखते। अब वो ऑनलाइन पर्ची बनवाए भी तो कैसे?

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ऑडिट के नाम पर उगाही

ऑडिट का खेला तो सबकी समझ में आता है। ऑडिट करने वाला जब पहुंचता है, तो क्लाइंट से खूब खातिरदारी करवाता है। भले ही खुद के पैसे से घर में सिगरेट के पैकेट में रखी सस्ती बीड़ी पीता हो, लेकिन ऑडिट करते वक्त ब्रांडेड सिगरेट की नॉन स्टॉप व चेन स्मोकिंग कर पूरे समय धुंए के छल्ले उड़ाता है। बाकी ऑफ दी रिकॉर्ड खर्चे अलग। सब कुछ मुफ़्त का चंदन घिसने जैसा मामला होता है।
वहीं, दूसरी तरफ जिला पंचायत की एक खास शाखा में एक अफसर ऐसा भी है, जो ऑडिट करने की बगैर पात्रता के भी समय-समय पर ‘हितग्राहियों’ के कैशबुक मंगवाकर वसूली करता है। आखिर, महंगाई के जमाने में सिर्फ तनख्वाह से भला घर कैसे चल सकता है। सरकार इतनी तनख्वाह देती भी तो नहीं है।
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फिर तीसरा बच्चा चोरी वाला मामला

दंतेवाड़ा जिले में बच्चा चोरी के दो मामले निपटने के बाद माहौल शांत हुआ भी नहीं था कि एक तीसरा मामला भी सामने आ गया। लेकिन पुलिस ने जिस तरह सूझबूझ और तत्परता से 2 घंटे के भीतर बच्चे को सकुशल बरामद कर लिया, वह काबिले तारीफ है। इसके पहले बचेली वाले मामले में 4-5 घंटे के भीतर बच्चा चोरों को पकड़ लिया गया था। यानी इस तरह के केस से निपटने में पुलिस अभ्यस्त होती जा रही है और उसने अपनी टाइमिंग और एक्यूरेसी काफी सुधार ली है। वरना, सिर्फ नक्सली हमलों और वारदातों में उलझे रहने की वजह से दूसरी तरह के क्राइम इन्वेस्टीगेशन सीखने का मौका ही नहीं मिलता था।
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सुकन्याओं का खाता

दंतेवाड़ा जिला प्रशासन ने एक बार फिर बालिकाओं के लिए सुकन्या समृध्दि योजना के खाते खुलवाने का अभियान शुरू किया है। इसके लिए शिविर की तारीख का ऐलान भी कर दिया है। बालिकाओं को खाते में पांच-पांच सौ रुपए प्रशासन की तरफ से जमा करने का ऐलान हुआ है, लेकिन पिछली बार दूध से जले हुए माता-पिता इस बार छाछ भी फूंक-फूंक कर पीना चाहते हैं। उनकी शंका प्रशासन की नेकनीयती पर नहीं है, बल्कि बैंक वालों पर उन्हें भरोसा नहीं रहा। दरअसल 7-8 साल पहले भी प्रशासन ने ऐसा ही मेगा कैम्प दंतेवाड़ा के मेंडका डोबरा मैदान पर आयोजित किया था। तब हजार-हजार रुपए अपनी तरफ से जमा करवाने का ऐलान किया गया। बैंक वालों ने खानापूर्ति के लिए स्टॉल लगाकर फॉर्म तो भरा, लेकिन खाते ही नहीं खोले। फॉर्म कूड़े में फेंक दिया। कई साल इंतजार के बाद भी ज्यादातर सुकन्याओं को पासबुक ही नहीं मिले। तब तक कई बालिकाओं की पात्रता की उम्र ही निकल चुकी थी।
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जुआ धर -पकड़ के मायने

दक्षिण बस्तर में पुलिस ने इस बार दशहरा पर्व से ही जुआरियों पर ताबड़तोड़ छापामार कार्रवाई शुरू कर दी। आम लोग इस बात से खुश हैं कि चलो, खानापूर्ति ही सही, पर कम से कम कुछ ‘पहुंच’ विहीन ग्रामीण जुआरियों को पकड़कर पुलिस ने बता ही दिया कि इस बार कोई ‘शकुनि’ मामा वाला दांव नहीं चलेगा। साथ ही पुलिस भी खुश है कि कम से कम अपने-अपने एरिया में जुर्म दर्ज करने की बोहनी तो हो गई। अब कोई ‘धृतराष्ट्र’ बने रहने का इल्जाम नहीं लगा पायेगा। असली पांसे तो दीवाली में फेंके जाएंगे। तब फड़ लाखों के सजेंगे। वैसे भी फड़ से जब्ती की रकम को शो-ऑफ करने का खेल ही मायने रखता है।
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आरक्षण का इंतजार
आगामी नगरीय निकाय चुनाव के लिए दावेदार गोटियां फिट करने में लगे हुए हैं, लेकिन सारी कवायद अध्यक्ष पद के महिला/पुरुष आरक्षण पर जाकर अटक रही है। अभी तक इसका खुलासा नहीं हुआ है। खुलासे के बाद ही रणनीति को फाइनल टच दिया जा सकेगा।

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