साप्ताहिक व्यंग्य कॉलम (शब्द बाण भाग-49)
शैलेन्द्र ठाकुर @ दंतेवाड़ा
दंतेवाड़ा में जिलाधीश ने साप्ताहिक टीएल समीक्षा की ऑनलाइन बैठक शुरू करने की अभिनव पहल की है। इससे विभिन्न विभाग के अफसरों को हर सप्ताह कलेक्ट्रेट आने की अनिवार्यता खत्म हो गई है। उन्हें अपने दफ्तर में बैठे-बैठे ही ऑनलाइन जुड़कर बैठक अटैंड करने की सुविधा मिली है, लेकिन ज्यादातर ऐसे अफसरों की दिक्कत बढ़ गई है, जो टीएल व अन्य बैठको के नाम पर अक्सर अपने दफ्तर व मुख्यालय से नदारद रहते थे। भला हो युवा कलेक्टर का, जिन्होंने आम जनता व सरकारी कामकाज के सिलसिले में आने वाले लोगों से खो-खो और लुका-छिपी खेलने की इस प्रवृत्ति पर एक तरह से लगाम कस दिया है। इससे अफसर अब दफ्तर व फील्ड को ज्यादा समय दे पाएंगे। कलेक्ट्रेट तक की दौड़ में समय और ईंधन की बचत होगी, सो अलग।
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मौसम ने बचाया फजीहत से
इस बार विश्वकर्मा जयंती पर आम लोग बैलाडीला के आकाशनगर का स्वर्ग जैसा नज़ारा देख नहीं पाएंगे। वजह यह है कि पर्यटकों के प्रवेश पर रोक लगा दी गई है। इसके पीछे खराब मौसम और भू-स्खलन के खतरे की आशंका को जिम्मेदार ठहराया गया है। लेकिन यह भी बड़ी राहत की बात है कि आकाशनगर जाने के लिए दंतेवाड़ा- बैलाडीला मार्ग बचेली पहुंचने तक ‘चंद्रमा की सतह से ज्यादा’ गड्ढों से होकर लोगों को गुजरना नहीं पड़ेगा। इससे पीडब्ल्यूडी और सरकार की फजीहत जिले से बाहर और दूसरे राज्यों में होने से बचेगी। अभी तक बैलाडीला इलाके के बाशिंदे ही सड़क की खस्ता हालत के लिए जिम्मेदारों को पानी पी-पीकर कोसते आ रहे हैं।
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रेलवे का डबल डोज
दंतेवाड़ा के आंवराभाटा रेलवे क्रासिंग पर बार-बार रेलवे फाटक बंद होने से लोगों की पीड़ा कम होने की बजाय बढ़ती जा रही है। रेलवे ने तो अब कोविड वैक्सीन की तरह इस पीड़ा का डोज डबल कर दिया है। पहले फाटक बंद होने पर एक ही ट्रेन गुजरती थी, अब एक बार फाटक बंद होने पर 2 ट्रेन गुजरने तक रुकना पड़ता है। लाइन जो डबल हो गई है। हुई न डबल डोज वाली बात! वैसे, यहां ओवरब्रिज सिर्फ घोषणा तक ही सीमित रह गया है, इसके नाम पर कोई प्रक्रिया अब तक शुरू नहीं हुई।
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ये रिश्ता क्या कहलाता है??
दंतेवाड़ा जिले में खाद्य विभाग और रसोई गैस डीलरों के बीच कोई गहरा रिश्ता है। तभी तो उपभोक्ता के सामने वजन किए बगैर ही भरे हुए सिलेंडर दिए जा रहे हैं। होम डिलीवरी की जगह उपभोक्ता खुद गोदाम जाकर सिलेंडर लाने मजबूर है। उन्हें ट्रांसपोर्टिंग का पैसा नहीं लौटाया जा रहा। यह कम लोग ही जानते हैं कि बुकिंग पर्ची में 5 किमी के दायरे में सिलेंडर पहुंचाकर देने का खर्च भी शामिल रहता है। इसी पैसे की बचत के खेल में खाद्य विभाग का तंत्र धृतराष्ट्र बनकर सत्ता सुख भोग रहा है।
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मरीज जान बचाए या मोबाइल?
जिला हॉस्पिटल दंतेवाड़ा की कथाएँ अनंत हैं। दो दिन पहले इस हॉस्पिटल में भर्ती पेटदर्द पीड़ित मरीज के दो मोबाइल रात में किसी ने पार कर दिए। पुलिस सहायता केंद्र से मरीज को कोई मदद नहीं मिली। हॉस्पिटल के सीसीटीवी कैमरे भी काम नहीं आ पाए। ” सावधान ! आप सीसीटीवी कैमरे की निगरानी में हैं।” वाली तख्ती जरूर दिखाई पड़ती है, लेकिन यह सिर्फ लोगों को डराने के काम आती है। कैमरे तो चलते ही नहीं हैं।
अब मरीज अपनी जान की फिक्र करे या मोबाइल जैसे कीमती सामान बचाने की, यह बड़ी समस्या है।
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एयरपोर्ट की विजिबिलिटी लाइट्स
बस्तर संभाग मुख्यालय के एयरपोर्ट में विजिबिलिटी लाइट्स व उपकरण अब तक नहीं लगाए जा सके हैं। इन उपकरणों के बगैर खराब मौसम में लैंडिंग नहीं हो रही है और ज्यादातर फ्लाइट कैंसिल हो जाती है। कुछ मजाकिया लोगों की राय है कि महंगी लाइट्स लगवाने की जगह रनवे के किनारे पर डीएमएफ लिखे ईंट ही लगवा दें, तो 5000 मीटर क्या, 10 हजार मीटर ऊपर से भी रनवे साफ नजर आने लगेगा। पैसे में काफी चमक होती है। वैसे भी खनिज संसाधन से भरपूर बस्तर में डीएमएफ मद पर लोगों की गिद्ध दृष्टि बनी ही रहती है।
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राहत सामग्री में कच्छा- बनियान!
किरंदुल में डैम टूटने की आपदा के बाद से कई तरह की चर्चाओं का दौर जारी है। इनमें से एक मुद्दा एनएमडीसी द्वारा बांटी जा रही राहत सामग्री का भी है। जिन्हें वास्तव में नुकसान हुआ है और जो जरूरतमंद हैं, उनका मदद और राहत सामग्री लेना तो वाजिब है, लेकिन कुछ धन्ना सेठ और सक्षम लोग भी लाभार्थियों के इस कतार में लगने में पीछे नहीं हैं। वैसे, आपदा में अवसर ढूंढना स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति है ही, एक कारण यह भी है कि राहत सामग्री में कच्छा-बनियान तक बांटी जा रही है। यह भी गौरतलब है कि जिस संस्थान की चूक की वजह से यह आपदा आई, उसके ही नुमाइंदे खुद को देवदूत बताकर पेश करने में जुटे हैं।
किसी ने क्या खूब कहा है-
“मुझको तो होश नहीं, तुमको खबर हो शायद।
लोग तो कहते हैं कि तुमने मुझे बर्बाद किया।।”
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