साप्ताहिक व्यंग्य कॉलम *शब्द बाण*
शैलेन्द्र ठाकुर /BastarUpdate/Dantewada
नाराज फूफा और चुनाव
विधानसभा चुनाव में जितनी दिक्कत मतदाताओं को साधने में हो रही है, उससे कहीं ज्यादा कठिनाई अपने ही घर के नाराज़ फूफ़ाओं से है, जो बात-बात पर रूठने लगते हैं। सभी पार्टियों में यही स्थिति है। वहीं, कांग्रेस से बगावत कर फॉर्म भरने वाले उम्मीदवार से पार्टी खासी परेशान है। नामांकन वापसी के दिन इस उम्मीदवार को मनाने की भरपूर कोशिश हुई, लेकिन उम्मीदवार मोबाइल स्विच ऑफ कर ऐसे गायब हुए कि ढूंढा ही नहीं जा सका। इतनी मजबूती से बगावत के पीछे कौन सी शक्ति है, इसे लेकर तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे हैं।
दादाओं की खामोशी
विधानसभा चुनाव में इस बार अंदर वाले दादाओं का रूख क्या रहेगा, यह भांपने की कोशिश में सभी राजनीतिक दल और चुनाव से जुड़े अफसर-कर्मी लगे हैं। पिछले चुनावों के मुकाबले इस बार शांतिपूर्ण माहौल में प्रचार अभियान चल रहा है, जो राहत की बात है। निश्चिन्तता इतनी है कि 60 प्लस वाले बुजुर्ग अफसर-कर्मी तक मतदान दलों में शामिल कर दिए गए हैं, जबकि पिछले चुनावों में मतदान दलों को आधी रात पैदल चलकर बूथ तक पहुंचने का अनुभव भी रहा है।
झाड़ू की सफाई
इस बार भी दक्षिण बस्तर में मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही माना जा रहा है, लेकिन जिस तरह से आम आदमी पार्टी ने अपना नेटवर्क तगड़ा बना लिया है, उससे दोनों ही पार्टियों के रणनीतिकारों के चेहरे की हवाइयां उड़ी हुई है। पंजे और कमल के वोट बैंक पर जिस तरह से झाड़ू चली है, उससे सारा समीकरण बिगड़ता दिख रहा है। वहीं दूसरी तरफ सीपीआई के उम्मीदवार को हंसिया-बाली चिह्न नहीं मिल पाना भी चुनावी गणित बिगाड़ चुका है।
नोटा का ख़ौफ़
दक्षिण बस्तर में एक छोर पर नोटा और दूसरे छोर पर पहले नंबर वाले उम्मीदवार को मिलने वाले वोट ही सारा समीकरण बिगाड़ देते हैं। पिछले चुनाव में तो नोटा ने खुद के लिए पौने दस हजार वोट जुगाड़ लिए थे और जीतने वाले उम्मीदवार की लीड सिर्फ ढाई हजार की थी। जबकि कुछ नामी उम्मीदवार अपनी जमानत बचाने लायक वोट भी नहीं जुगाड़ पाए थे। वजह यह है कि बेचारे मतदाता जागरूकता की कमी से पहला और आखिरी बटन दबा जाते हैं। यही कारण है कि दोनों ही प्रमुख पार्टियां नोटा से ख़ौफ़ खा रही हैं। नोटा की जगह हाड़-मांस वाला उम्मीदवार हो तो कोई मैनेज भी कर ले, लेकिन ये तो मशीन है। ऐसे में सीएम कका तक नोटा बटन को ईवीएम से हटाने की मांग कर चुके।
चेपटी और पाल्टी दोनों ग़ायब
इस बार चुनाव में चेपटी और पाल्टी यानी चुनावी सुरा और भोज दोनों गायब हैं। इसके पीछे आयोग और पुलिस-प्रशासन की सख्ती है या फिर उचित समय का इंतजार, यह हितग्राहियों को समझ नहीं आ रहा है। लोग तो यह भी कहते हैं कि चुनावी फंड बचाकर चलने की पॉलिसी चल रही है। इसलिए फीलगुड का एहसास अपने-अपने उम्मीदवार को कराया जा रहा है।