साप्ताहिक व्यंग्य कॉलम शब्द बाण भाग-30
✍️ शैलेन्द्र ठाकुर @ दंतेवाड़ा
कोरोना काल में जिले में आए बड़े वायरस के साथ कई म्यूटेट वेरिएंट पैदा हो गए थे। उनमें से बड़े पैमाने पर तबाही मचाने वाले मुख्य वायरस के साथ ज्यादातर वायरस की विदाई हो चुकी है, लेकिन कुछेक वेरिएंट और सब वेरिएंट्स अब भी यहां जमे हुए हैं। नई सरकार के साथ एडजस्ट होने की कोशिश कर रहे इन वायरसों ने न सिर्फ डीएमएफ, बल्कि जिले के विकास को ही क्वारंटाइन करवा दिया था, जो अब भी सिस्टम को सुस्त किए हुए हैं। वायरस की डीबगिंग करने या एंटी वायरस प्रोग्राम चलाने में सरकार की कोई दिलचस्पी फिलहाल नहीं दिख रही है।
त्यौहार के नाके
बस्तर और दक्षिण बस्तर में इन दिनों फिर से त्यौहारी नाकों की शुरूआत हो गई है। कोड़ेनार से लेकर चित्रकोट के बीच की सड़कों पर ऐसे नाके सबसे ज्यादा हैं। ऐसे में राह चलने वाले अपनी सुरक्षा और किसी अनहोनी की आशंका को लेकर खासे भयभीत हैं। दरअसल, साल भर पहले ही ऐसे नाके की आड़ में अरनपुर में ब्लास्ट से डीआरजी जवानों की गाड़ी उड़ाई गई थी। अब दूध के जले छाछ भी फूंक-फूंक कर पी रहे हैं। कुछ समझदार तो रूट बदलकर चलने में ही अपनी भलाई समझ रहे हैं।
अब असली घोड़ों की सवारी..
दक्षिण बस्तर में स्कूली बच्चों को घुड़सवारी सिखाने की पहल हुई है। बच्चे भी खुश हैं और उनके पैरेंट्स भी। खुशी इसलिए कि अब की बार सच में घोड़े की सवारी करने का मौका मिल रहा है। वरना, कुछ साल पहले आरजीएम के अफसरों ने कागजों में ही घुड़सवारी करवा दी थी। बच्चों ने ‘अदृश्य’ घोड़ों की सवारी की और लाखों के बिल निकल गए थे। इसका पता बाद आरटीआई के जरिए चला था। राहत की बात यह है कि कम से कम इस बार घोड़े दिखते तो हैं।
एक्सीडेंटल फायरिंग से चिंता
बीते कुछ समय से एक्सीडेंटल फायरिंग में जवानों को काफी नुकसान उठाना पड़ा है। संयोग से हालिया तीनों एक्सीडेंटल फायरिंग के तार दक्षिण बस्तर से ही जुड़े हुए हैं। अब लोडेड गन की साफ-सफाई कैसे और क्यों हो रही है, ये तो पुलिस और तकनीकी जानकार ही जानें, पर जो भी हो रहा है, वह चिंताजनक है।
पंच से भी कम रफ्तार
बैलाडीला मार्ग की त्रासदी झेल रहे लोगों की पीड़ा को कम करने सड़क निर्माण कार्य में अब तेजी तो आई है, लेकिन ठेकेदार की सुस्त कार्यप्रणाली अब भी लोगों को रास नहीं आ रही है। लोगों का कहना है कि ठेकेदार का ग्रेड भले ही बड़ा हो, लेकिन काम के अनुभव और रफ्तार के मामले में दंतेवाड़ा जिले के ग्राम पंचायतों के पंच-सरपंच ज्यादा बेहतर हैं। इससे अच्छा होता कि निर्माण कार्य में पंच-सरपंचों की मदद ली जाती। जिले में आरजीएम के पिछले ‘स्वर्ण युग’ में ठेकेदारी कर चुके गुरूजियों के दीर्घ अनुभव का लाभ भी लिया जा सकता था, जिन्हाेंने बहुमंजिले भवनों के निर्माण में महारत हासिल कर ली थी।
लाइलाज हुई जिला हास्पिटल की बीमारी
आम जन का इलाज करने वाला जिला हास्पिटल दंतेवाड़ा अपनी खुद की गंभीर आंतरिक बीमारी से जूझता दिख रहा है। खराब प्रबंधन के चलते कभी यहां केमिकल लोचा हो जाता है, तो कभी एक्सरे की फिल्म ही महीनों तक नहीं मिलती है। यह तो साफ है कि प्रभारवाद का शिकार हुए इस हास्पिटल का इलाज पूर्णकालिक सिविल सर्जन की पोस्टिंग के बगैर असंभव है। हास्पिटल में चल रही उठापटक के चलते कई स्टाफ इधर से उधर किए जा चुके हैं। 200 बेड क्षमता वाले हास्पिटल में अपग्रेड करने की घोषणा पिछले स्वास्थ्य मंत्री टीएस बाबा ने की थी, लेकिन ढाई-ढाई साल वाले फार्मूले के चक्कर में बाबा की कका से कभी निभ नहीं सकी। इसका खामियाजा इस हास्पिटल को भी भुगतना पड़ा। अब उम्मीदें ‘विष्णु देव’ से की जा रही हैं।
हरियाली को ‘नो’, पत्थर को ‘यस’
शक्तिपीठ सौंदर्यीकरण में हरियाली के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी गई है। महोदय ने अपने प्रोजेक्ट में हरियाली को ‘नो’ और पत्थरों को ‘यस’ का सिग्नल दिलवा दिया। महोदय को लाल पत्थरों से कुछ ज्यादा ही मोह था। डंकनी नदी किनारे जितनी हरियाली थी, सब गायब कर दी गई। इसकी जगह टाइल्स ही टाइल्स बिछाए गए हैं। पेड़-पौधों को विदा कर दिया गया और इसके लिए कोई जगह नहीं छोड़ी गई। फर्श से लेकर दीवार, बाउंड्रीवाल तक टाइल्स चिपकाए गए हैं और सारा इलाका अब भट्टी की तरह धधक रहा है। जड़ को छोड़ पत्तों को सींचने की यह प्रवृत्ति लोगों को रास नहीं आ रही है। जिस सुकून और ठंडक की आस लिए लोग यहां पहुंच रहे हैं, वो परिसर से गायब है। राहत इंदौरी साहब ने क्या खूब कहा है –
“न सुकून नसीब है, न राहत जिंदगी में ।
भटक रहा हूं अंधेरे में, तन्हाई के लिए।“