आरजीएम को हरे राम का सहारा ( शब्द बाण-56)

आरजीएम को हरे राम का सहारा ( शब्द बाण-56)

साप्ताहिक व्यंग्य कॉलम शब्द बाण (भाग-56)
10 नवंबर 2024

शैलेन्द्र ठाकुर । दंतेवाड़ा

किसी जमाने में दक्षिण बस्तर में आरजीएम यानि राजीव गांधी शिक्षा मिशन सबसे मालदार प्रोजेक्ट हुआ करता था। तब सरकार के पास ‘डीएमएफ’ जैसे ‘जादुई चिराग’ का कांसेप्ट तक तैयार नहीं हुआ था। खैर, मिशन के लिए केंद्र सरकार से फंड लाने में ‘हरे राम’ साहब की काबिलियत का कोई सानी नहीं था। वर्तमान सुकमा, दंतेवाड़ा और बीजापुर जिला मिलाकर अविभाजित रहे दक्षिण बस्तर में फंड की गंगा बहती थी। सीआरसी, बीआरसी, बीईओ करोड़ों के आसामी हुआ करते थे। ट्रेनिंग, खरीदी, निर्माण कार्य जमकर चलते थे।

यही वजह थी कि ज्यादातर गुरूजी इस कुर्सी की मुंहमांगी कीमत चुकाने को तैयार रहते थे। सरकारी ही नहीं, बल्कि निजी सेक्टर में भी धन का प्रवाह बड़ी सरलता और तरलता से हुआ करता था। कालांतर में साहब ट्रांसफर पर चले गए।

दो सरकारें बदलने के बाद अब दक्षिण बस्तर के हालात भी बदल गए हैं। आरजीएम का नाम बदलकर सर्व शिक्षा अभियान यानि एसएसए हो गया है। ‘एक्को पइसा नइए गा’ … का रोना रोने की नौबत आ रही है, फिर भी इस उम्मीद में कुछ लोग कुर्सी से चिपके हुए हैं, कि शायद हरे राम का चमत्कार फिर से रंग दिखा जाए, और स्वर्णयुग की वापसी हो जाए। वैसे, यह संभव तो नहीं, लेकिन उम्मीद पर दुनिया कायम है।

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कटेकल्याण में कांग्रेस का कल्याण
कटेकल्याण में सीपीआई वाले कामरेडों की मुसीबत कम होने का नाम नहीं ले रही है। सक्रिय राजनीति व लोकतंत्र पर भरोसा रखने वाली सीपीआई जैसी राजनीतिक पार्टी का किला इस तरह से ढहना नए समीकरण को जन्म देने वाला है। पिछले करीब डेढ़-दो दशक से भाजपा कांग्रेस ही हार-जीत का पलड़ा झुकाने में सीपीआई की खास भूमिका हुआ करती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं हो सकेगा। दरअसल, हंसिया-बाली चिह्न भी पार्टी से छिन गया, लिहाजा पिछले चुनाव में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। अंतत: दशकों तक सीपीआई की राजनीति की अगुवाई करने वाले भीमसेन साथियों समेत खुद कांग्रेस में शामिल हो गए। इतने जनाधार वाले नेता का कांग्रेस का दामन थामना भाजपा के लिए शुभ संकेत नहीं है। वहीं, कांग्रेस की बल्ले-बल्ले हो गई है। भाजपा व कांग्रेस की वोट काटने वाली सीपीआई के जमीनी कार्यकर्ताओं को अपने खेमे में शामिल करना बड़ी कामयाबी है।

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जिला हास्पिटल की उठापटक
दंतेवाड़ा के जिला हास्पिटल की कथाएं अनंत हैं, पर ऐसा नहीं है कि ये किस्से हास्पिटल की उपलब्धि के हों। सिर्फ घोटाले ही घोटाले सामने आ रहे हैं। कुछ चिकने पात वाले होनहार बिरवानों ने तो इसका डीएमएफ वाला किडनी-लीवर तक निकाल लिया है, जिससे हास्पिटल मल्टी आर्गन फेल्योर व मरणासन्न हालत में पहुंच गया है। लोग तो यह भी कहने लगे है कि इस हास्पिटल में इलाज छोड़कर बाकी सब कुछ होता है।

जब डीएमएफ यानि जिला खनिज न्यास निधि की गंगा बह रही थी, तो राह चलते लोग भी इस बहती गंगा में हाथ धोने लग गए थे। कुछ कर्मचारियों ने तो डीएमएफ के खजाने को निजी बटुए की तरह इस्तेमाल करके दिखा दिया। जब जिसके मन में आया, अपने लोगों के नाम चेक काटकर भुना लिया। कोविड काल को आपदा में अवसर बनाने वालों की भी कमी नहीं रही। पता चला है कि फैंसी स्टोर्स वाले ने मास्क, सेनिटाइजर, तो किसी ने मरीजों के लिए ब्लाउज, पेटीकोट तक की सप्लाई कर डाली थी। अब जबकि घड़ा भर गया है, तो फूटने से पहले छलकने लगा है।

जमकर चौके-छक्के उड़ाकर निकल चुके हास्पिटल के पूर्व कप्तान व आल राउंडर कपिलदेव से भी जवाब तलब किया जा रहा है। वैसे यह घोटाला तो सिर्फ एक बानगी भर है, पिछले 10 साल के खर्च का ब्यौरा निकाल लिया जाए, तो कई सारे चौंकाने वाले आंकड़े सामने आएंगे। लेकिन राजनीतिक और अन्य दबाव समूहों के रहते हास्पिटल की इतनी मेजर सर्जरी हो पाएगी, यह कहना मुश्किल है।

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सत्ताधारी भाजपाइयों की बेबसी !!

कहने को तो केंद्र और राज्य में भाजपा की डबल इंजन सरकार है, और खूब तेज गति से विकास अपनी पटरी पर दौड़ रहा है, लेकिन इस हफ्ते दंतेवाड़ा जिले में एक ऐसा वाकया हो गया, जिससे लगता है कि विकास की इस तेज रफ्तार में भाजपाईयों का अपने आप पर भरोसा ही बेपटरी हो गया है। दरअसल, कटेकल्याण में कांग्रेस ने तगड़ा धरना-प्रदर्शन कर सरकार के खिलाफ न सिर्फ अपनी ताकत दिखाई, बल्कि सीपीआई के पुराने, भरोसेमंद नेताओं कार्यकर्ताओं को अपनी पार्टी में प्रवेश करवा दिया। इस पार्टी प्रवेशोत्सव के बाद भाजपा नेताओं के कान खड़े हो गए। इस बात का ठीकरा कटेल्याण के बीईओ पर फोड़ा गया कि आखिर शाला प्रवेशोत्सव से ज्यादा पार्टी प्रवेशोत्सव में इतनी दिलचस्पी क्यों दिखाई?    और तो और,  विपक्ष के कार्यक्रम के लिए भोजन-पानी का इंतजाम क्यों किया?  लेकिन बीईओ को निपटाने के लिए भाजपा के नेता अपनी ही सरकार और अफसरों पर दबाव नहीं बना सके।

नौबत यहां तक आ गई कि भाजपा के जिला महामंत्री को प्रेस में आकर बीईओ के खिलाफ बयान देना पड़ा। लेकिन यह दांव उल्टा पड़ता दिख रहा है। कांग्रेसियों ने इस प्रेस कान्फ्रेंस को भाजपा की बेबसी बताकर भुनाना शुरू कर दिया है। यह सच ही तो है कि जिस अदने से बीईओ को सिर्फ एक इशारे पर पद से हटाया जा सकता था, उसके लिए आखिर प्रेस कान्फ्रेंस लेकर पार्टी की भद्द पिटवाने की जरूरत क्यों पड़ गई। वैसे भी नई सरकार बनकर साल भर होने को हैं, जिले में कांग्रेसी कार्यकाल वाले किसी भी बीईओ को बदलने का साहस सरकार नहीं जुटा सकी है।

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बारसूर महोत्सव का जिन्न
जिस बारसूर महोत्सव का सांस्कृतिक बीज भाजपा सरकार ने मकर संक्रांति पर डाला था, वह पौधा बनकर उगा जरूर, लेकिन परिपक्व पेड़ नहीं बन सका। उसकी जड़ कांग्रेस सरकार ने खोद दी। आयोजन स्थगित करने के पीछे सूखे का बहाना रहा हो या फिर वैश्विक महामारी कोविड का। कोविड काल बीतने के बाद भी आयोजन दोबारा शुरू नहीं हुआ।

वैसे तो, सिरपुर महोत्सव, चक्रधर महोत्सव, चित्रकोट महोत्सव जैसे आयोजनों के लिए तो सरकार के पास धन की कमी नहीं होती है, लेकिन अपनी सत्ता कायम रखने सभी राजसूय यज्ञों की शुरूआत भाजपा जिस माता दंतेश्वरी के क्षेत्र से करती है, वहां बारसूर महोत्सव जैसे आयोजन के लिए धन का सूखा पड़ जाता है। कभी सूखा, तो कभी पनिया अकाल की दुहाई दी जाती है।

सरकार में वापसी के बाद पहला मकर संक्राति बगैर बारसूर महोत्सव के निकल गया और इस बार भी मकर संक्रांति आने में कुछ ही हफ्ते बचे हैं, लेकिन बारसूर महोत्सव की कोई सुगबुगाहट नहीं दिख रही है।

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छठ महापर्व पर सिविक एक्शन
मांई दंतेश्वरी की नगरी में हुए छठ पूजन में फोर्स के सिविक एक्शन प्रोग्राम यानि जनता से जुड़ाव वाले कार्यक्रम पर सवाल उठ खड़े हुए। पिछले कुछ साल से छठ घाट पर साफ-सफाई, साज-सज्जा, चाय-पानी का इंतजाम कर सीआरपीएफ लोगों का दिल जीतते आ रही थी, लेकिन इस बार ऐसी व्यवस्था नहीं दिखी। फोर्स ने अर्घ्य देने वाली मुख्य जगह से हटकर घाट पर खाना-पूर्ति के लिए अपने ध्वज-पताका नवनिर्मित स्ट्रक्चर पर लगा दिए, जिसकी तरफ जाने में छठ व्रतियों व अन्य श्रद्धालुओं ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। फोर्स की व्यवस्था के भरोसे रह गए समाज ने पहले से कोई तैयारी नहीं की।

वहीं, छत्तीसगढ़ की आर्म्ड फोर्स सीएएफ ने तो सेंट्रल फोर्स से एक कदम आगे बढ़कर आयोजन स्थल पर लगे सामाजिक टैंट पर अपना बैनर टांगकर खाना पूर्ति कर दी। कुल मिलाकर बात यह समझ में आने लगी है कि जैसे-जैसे नक्सल समस्या की धुंध छंटती जा रही है, आम जनता से जुड़ाव में फोर्स की दिलचस्पी कम होती जा रही है।

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चलते-चलते…
दक्षिण बस्तर में फर्जीवाड़े के आरोपियों के फरार होने और अग्रिम जमानत लेने तक पुलिस गिरफ्त में नहीं आना महज इत्तेफाक है, या फिर मोटे आसामियों को कोई ‘खास’ सुविधा? यह आज की हाईटेक पुलिसिंग पर बड़ा सवाल है। उदाहरण भी सामने है। पहले जिला पंचायत और अब जिला हॉस्पिटल ।

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