विशेष आलेख
शैलेन्द्र ठाकुर / दंतेवाड़ा
जब से ईवीएम यानी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का प्रचलन हुआ है, इसमें नोटा यानी “इनमें से कोई नहीं”का बटन भी चुनाव आयोग ने जुड़वा दिया। इसका मकसद यही था कि वोटर को अगर कोई भी उम्मीदवार पसंद न हो तो यह बटन दबाकर अपनी नापसंदगी जाहिर कर सके। हो सकता है कि यह आयोग की भलमनसाहत हो, लेकिन नोटा का यह बटन धीरे-धीरे अप्रासंगिक साबित होता जा रहा है। अपनी नापसंदगी जाहिर करने का कोई मतलब हो या न हो, कोई परिणाम या सुधार हो, न हो, लेकिन इसने शिक्षा के कम स्तर और जागरूकता की कमी वाले इलाके में नई मुसीबत खड़ी कर बहस को जन्म दे दिया है। छत्तीसगढ़ के बस्तर जैसे पिछड़े इलाके, खासकर दक्षिण बस्तर के दंतेवाड़ा, कोंटा व बीजापुर विधानसभा क्षेत्रों में पिछले चुनावों में नोटा ने राष्ट्रीय पार्टियों के उम्मीदवारों जितनी वोट हासिल की है। दंतेवाड़ा सीट पर ही पिछले 2 चुनावों में नोटा ने 7 से साढ़े 9 हजार तक वोट पाया है। जबकि चुनाव परिणाम में हार-जीत का अंतर महज ढाई हजार से लेकर 10 हजार तक रहा। यानी नोटा के वोट चुनाव में खड़े उम्मीदवारों में बंटे होते, तो शायद चुनाव परिणाम कुछ और ही होते।
अनजाने में दबा रहे बटन
अब रही बात नोटा बटन के इस्तेमाल की, तो ज्यादातर ग्रामीण मतदाता जानबूझकर नहीं, बल्कि अशिक्षा और अल्प जागरूकता की वजह से नोटा का बटन दबा जाते हैं। जरा सोचिए, कि नक्सल प्रभावित क्षेत्र में नक्सलियों द्वारा चुनाव बहिष्कार के फरमान के बावजूद पहुंच विहीन इलाकों से मीलों पैदल चलकर जो महिला-पुरुष लोकतंत्र पर आस्था जताने पहुंचते हैं, वो भला किसी जीते-जागते उम्मीदवार की जगह इनमें से कोई नहीं वाला नोटा बटन दबाकर अपनी मेहनत व अपना वोट क्यों बेकार करना चाहेंगे?
आखिर क्या है वजह?
नोटा बटन पर ज्यादा वोट पड़ने को लेकर मतदान कर्मियों और अन्य लोगों के अनुभव पर यकीन करें तो यह बात निकलकर सामने आती है कि जब मतदाता 4 टेबल पर सूची मिलान से लेकर अंगूठा निशान से दस्तखत करने की प्रक्रिया से गुजरकर ईवीएम वाले बूथ तक पहुंचता है, तो वहां वह सिर्फ अकेला खड़ा होता है। निष्पक्षता वाले नियमानुसार कोई भी मतदान कर्मी तक वहां नहीं रह सकता।
इसी समय मतदाता अज्ञानता वश ईवीएम मशीन के बैलेट यूनिट पर एक छोर से बटन दबाना शुरू करना चाहता है, और आम तौर पर स्टाम्प पैड की स्याही लगाए हुए अपने अंगूठे का इस्तेमाल करता है, लेकिन जैसे ही वह पहला बटन दबाता है, उसके मतदान की प्रक्रिया पूरी हो जाती है। अब किसी एक छोर का यह पहला बटन या तो नोटा का होता है, या फिर पहले नंबर में नाम वाले उम्मीदवार का। इस तरह से ईवीएम पर पहले नंबर पर रहने वाला उम्मीदवार भी बिना किसी खास मेहनत के ऐसे वोट बटोर लेता है और नोटा भी।
चुनाव आयोग को नोटा बटन को लेकर पुनर्विचार तो करना ही चाहिए, साथ ही असली ईवीएम मशीन के साथ पूरे 5 साल मतदाताओं को सघन प्रशिक्षण भी देने की व्यवस्था करनी चाहिए, खासकर पिछड़े ग्रामीण इलाकों में।