(16 जून 2024)
साप्ताहिक व्यंग्य कॉलम शब्द बाण भाग-36
शैलेन्द्र ठाकुर@ दंतेवाड़ा
‘विष्णु’ के बाद ‘महेश’ की ताजपोशी
राज्य के मुखिया के तौर पर ‘विष्णु’ देव के पदासीन होने के बाद संसद में बस्तर की आवाज बुलंद करने ‘महेश’ को जनता ने चुना है। अब देखना यह है कि केन्द्र और राज्य स्तर पर दोनों बस्तर के संदर्भ में अपनी भूमिका कैसे निभाते हैं। वैसे, यह भी अजब इत्तेफाक ही है कि यहां प्रशासनिक कमान ‘चारों वेदों के ज्ञाता’ के पास है। यानि त्रिदेव वाला संयोग दक्षिण बस्तर के मामले में बना हुआ है। अब यह संयोग दक्षिण बस्तर के हिस्से में कितनी तरक्की और खुशहाली लेकर आता है, यह तो भविष्य ही बताएगा।
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बलौदाबाजार में दंतेवाड़ा का अनुभव
बलौदाबाजार आगजनी कांड की घटना के बाद जिस आईएएस को इस जिले के कमान सौंपी गई है, उससे यह साफ है कि दंतेवाड़ा जैसे इलाके में काम करने के अनुभव का इस्तेमाल सरकार वहां करना चाहती है। कोरोना काल जैसे विपरीत हालात में दबंगई से कलेक्टरी करने वाले दीपक सोनी इस नई जिम्मेदारी में फिट बैठेंगे, इस पर किसी को शक नहीं। सूरजपुर, दंतेवाड़ा और कोंडागांव जिले का अनुभव वहां काम आ सकता है। गनीमत यह रही कि सरकार ने ‘महोदय’ को इस काम के लिए नहीं चुना। वरना, बलौदाबाजार को भी दंतेवाड़ा बनते देर नहीं लगती।
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नवरत्नों की विदाई
दक्षिण बस्तर से महोदय काल के कुछेक ‘नवरत्नों’ की विदाई अब भी बाकी है। महोदय के दरबार की शोभा बढ़ाने वाले नवरत्नों से अधिकांश दरबारी तो दूसरे जिलों में शिफ्ट किए जा चुके हैं। अपने सबसे अजीज एक नवरत्न को महोदय ने खुद एयरलिफ्ट करवा लिया था। इसके बाद भी कुछ बाकी रह गए। इनमें से कुछ तो नई सरकार के नेताओं की गणेश परिक्रमा में जुटे हुए हैं, ताकि जिले से बाहर तबादला न हो, लेकिन कुछ का तबादला टाला ही नहीं जा सकता है। सत्तापक्ष से उड़ती खबर ये आई है कि आचार संहिता हट गई है, तो इनकी वापसी की प्रक्रिया भी जल्द शुरू होगी। वैसे तो महोदय की विदाई की खुशी में दंतेवाड़ा के चौक-चौराहों पर जमकर पटाखे फूटे थे। यहां तैयारी तो बाजे-गाजे की भी थी। पर ऐसा नहीं हो सका, फिर भी विदाई यादगार बन गई थी।
लेकिन ताजा तरीन बलौदाबाजार कांड को देखते हुए इस तरह की खुशियां मनाने का मौका शायद ही पीड़ितों को मिल पाए।
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हार कर भी बाजीगर बने लखमा
शाहरूख खान अभिनीत फ़िल्म बाजीगर का वो मशहूर डायलाग आपको याद ही होगा- हार कर भी जो जीत जाए उसे बाजीगर कहते हैं। इस डायलाग को चरितार्थ किया है, बस्तर संसदीय सीट से कांग्रेस उम्मीदवार कवासी लखमा ने। दादी के नाम से लोकप्रिय लखमा के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं था। दादी भले ही लोकसभा चुनाव में जीत न सके हों, लेकिन कोंटा सीट से उनकी विधायकी तो बरकरार ही रहेगी। इस सीट से अजेय योद्धा रहे दादी को एक बार भी हरा नहीं सकी भाजपा के लिए एक उम्मीद जागी थी कि अगर दादी सांसद चुने गए, तो खाली हुई कोंटा सीट पर उप चुनाव होना तय है। ऐसा होता तो संभवतः भाजपा के लिए इस सीट पर खाता खोलने का सुनहरा मौका रहता। लेकिन बिल्ली के भाग्य में छींका नहीं छूटना था, सो नहीं छूटा। लखमा दादी लोकसभा चुनाव हारने के बावजूद इस मायने में भाजपा को मात देने में सफल रहे। खिसियाये भाजपाई हाथ मलते रह गए।
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अब नगर सरकार के लिए उठा-पटक
विधानसभा-लोकसभा चुनाव से फुरसत मिली नहीं कि अब नगरीय निकाय चुनाव की तैयारी शुरू हो गई है। चुनाव भले ही 6 -7 माह बाद होने हों, लेकिन वार्ड परिसीमन को लेकर जल्द ही उछलकूद तेज हो जाएगी। नगर सरकार में दिलचस्पी रखने वाले खांटी नेता तो अभी से अपनी गोटियां फिट करने के जुगाड़ में लगे हैं। किस वार्ड को अनारक्षित करना है, किस वार्ड को किस कैटेगरी में आरक्षित करवाना है, कहां अपने विरोधी संभावित उम्मीदवार की जमीन खिसकानी है, और किस जगह अपने समर्थक की जीत पक्की करवानी है, इसका जोड़-तोड़ शुरू हो गया है।
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अब आगे क्या होगा कालिया??
दंतेवाड़ा के बस स्टैंड में साडा काम्प्लेक्स का जर्जर भवन गिराया जा चुका है। इससे जो खाली जगह बनी है, वो लोगों को बड़ा सुकून दे रही है। इतने दशक बाद यहाँ पार्किंग और आवाजाही के लिए पर्याप्त आजादी मिली है।
लेकिन ज्यादातर लोगों के जेहन में शोले वाले गब्बर सिंह टाइप का यह सवाल तैर रहा है- ‘आगे तेरा क्या होगा रे कालिया??’
देखना यह है कि पालिका इस जगह पर फिर अनाप-शनाप निर्माण कर कोई ढांचा खड़ा करती है या फिर इसे जनोपयोगी पार्किंग या गार्डनिंग के लिए खुला छोड़ती है। वैसे यहां निजी स्वार्थ सार्वजनिक हित पर हमेशा ही भारी पड़ता रहा है।
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एनएमडीसी ने पकड़ाया झुनझुना
एनएमडीसी की स्लरी पाइप लाइन बैलाडीला से नगरनार तक बिछाई जा रही है। पाइप लाइन बिछाने से पहले ग्राम सभाओं का दौर चल रहा था, तब तक एनएमडीसी अफसर खुशामद वाले मोड में ग्रामीणों और सरपंचों से बातचीत कर रहे थे। पाइप लाइन गुजरने वाली ग्राम पंचायतों को सालाना 30 लाख रुपए स्थानीय विकास निधि में देने के वादे किए, लेकिन 5 साल में पंचायतों तक यह राशि अब तक नहीं पहुंची।
अब पाइप लाइन बिछाई जा रही है, तो नेताओं की तरह वायदे करने वाले अफसर गायब हैं। उनकी जगह तकनीकी कर्मचारी फील्ड में दिखते हैं। इधर, पंच-सरपंच उनके इंतजार में बैठे हैं।