(19 मई 2024)
🏹🎯 साप्ताहिक व्यंग्य कॉलम शब्द बाण ( भाग-33) ✒️
✍️ शैलेन्द्र ठाकुर @ दंतेवाड़ा
चुनावी आचार संहिता आम जन के लिए गले की हड्डी बनकर रह गई है, जो न उगलते बन रही है, न ही निगलते। बस्तर में मतदान के महीने भर बीतने के बाद भी आचार संहिता की कंटीली फैंसिंग लोगों को परेशान कर रही है। पुराने काम का पेमेंट और किसानों के फसल की बीमा राशि तक का भुगतान नहीं हो रहा है। संबंधित कहते हैं, आचार संहिता लागू है। अब लोग गूगल बाबा की शरण में जाकर आचार संहिता के प्रावधान खोजने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन गूगल बाबा के पास भी इसका ठीक-ठीक जवाब उपलब्ध नहीं है।
बारीकी से निरीक्षण
पंचायत विभाग की प्रमुख सचिव निहारिका सिंह मैडम ने दंतेवाड़ा पहुंचकर न सिर्फ पंचायत के काम-काज की समीक्षा की, बल्कि कई जगह फील्ड विजिट कर काम-काज को काफी बारीकी से देखा। गनीमत यह थी कि मैडम ने विदा हो चुके महोदय के कार्यकाल में हुए दर्जनों निदान शिविरों में मिली समस्याओं, शिकायतों के निराकरण का फालोअप नहीं लिया, वरना फाइलों और समस्याओं का अंबार देखकर इस आयोजन के औचित्य पर सवाल खड़े हो जाते। महोदय ने सिर्फ डीएमएफ और मूल समस्या से ध्यान भटकाने व सुर्खियां बटोरने के लिए अपना खुद का जन संपर्क अभियान चलाया था, निराकरण में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी। यह ठीक वैसा ही मामला था, जैसे बच्चे को झुनझ़ना पकड़वाकर शांत करवाना। इसके बाद जो हुआ, वो जग जाहिर बात है।
लाल बुझक्कड़ी सवाल
सौंदर्यीकरण के नाम पर तहस-नहस किए गए चितालंका तालाब में इस मानसून काल में भी मछलियों व जलीय जीवों को ठौर-ठिकाना मिल पाएगा या नहीं, यह अनिश्चित है। तालाब के भीतर बनने वाले स्ट्रक्चर को लेकर तरह-तरह के अनुमान लगाए जा रहे हैं। इसकी डिज़ाइन क्या होगी, यह किसी को नहीं पता। शुरूआती स्ट्रक्चर को देखकर पांडवों की राजधानी इंद्रप्रस्थ में बनाए गए माया महल की तस्वीर की कल्पना की जा रही थी। अब यह स्ट्रक्चर मिट्टी के नीचे आधा दब गया है, तो लाल बुझक्कड़ टाइप के लोगों के कयास भी बदलने लगे हैं। कभी प्रायमरी की किताब का हिस्सा रहे इस लाल बुझक्कड़ के पाठ की यह पंक्ति साकार होने लगती है-
“लाल बुझक्कड़ बूझ के और न बूझो कोय,
पांव में चक्की बांध कर हिरना कूदो होय।”
··अब ‘हाथी’ तो गुजर गया, लेकिन लाल बुझक्कड़ जी पांव के निशान देखकर पैरों में चक्की बांधकर हिरण के कूदने का किस्सा सुनाने लगे। खैर, जो भी हो, अगला मानसून सिर पर है, और मछलियों की भी उम्मीदें जागी हैं कि नई सरकार में इस तालाब में कम से कम उन्हें ठिकाना तो मिलेगा।
गीदम की एक और बेटी ने लहराया परचम
दंतेवाड़ा जिले में आईएएस के बाद अब आईएफएस जैसी प्रतिष्ठापूर्ण अखिल भारतीय सेवा में चयनित होने का गौरव गीदम की एक और बेटी ने हासिल किया है। पहले नम्रता जैन ने आईपीएस व आईएएस बनकर यह मिथक तोड़ दिया था कि बस्तर पिछड़ा इलाका है, यहां से बड़े पदों पर चयनित होना आसान नहीं है। इसके पहले दंतेवाड़ा की बेटी ने भी आईआरएस में चयनित होने का गौरव पाया था। लेकिन चिंताजनक बात यह है कि जिस तरह शिक्षण संस्थाएं राजनीतिक उठापटक का शिकार हो रही हैं, उससे आने वाले समय में दक्षिण बस्तर से टेक्नोक्रेट्स, ब्यूरोक्रेट्स और अन्य चार्मिंग प्रोफेशन में सफल होने वालों की संख्या में इजाफा होगा, यह कहना मुश्किल है।
गलती बकरी की या दीवार की?
दंतेवाड़ा जिला पंचायत के पीछे की दीवार ढहे महीने भर हो गए, लेकिन अब तक किसी ने उसकी सुध नहीं ली। बताते हैं कि सुरक्षात्मक बाउंड्रीवॉल की सुध लेने के लिए भी आचार संहिता खत्म होने का इंतजार है। इस दीवार ने अंधेर नगरी चौपट राजा वाले उस प्रसंग की याद दिलाई, जिसमें दीवार के गिरने से बकरी दबकर मर जाती है। इसके लिए कई लोगों को कसूरवार ठहराया जाता है। न्याय के दौरान यह बात ठहरती है कि कसूर बकरी का था। फिर क्या था, पेशी में पहले बकरी, फिर दीवार को पेश होने का आर्डर दिया जाता है। लेकिन इस बार जिला पंचायत की बाउंड्रीवॉल ठहरने के मामले में दीवार का मलबा ही नहीं उठाया गया है। अगर कोई बकरी जैसा कोई जीव दबा भी होगा, तो आचार संहिता हटने और मलबा सफाई तक उसकी हड्डी भी नहीं बचेगी।
पंचवर्षीय नाली
जिला मुख्यालय दंतेवाड़ा में टेकनार रोड हमेशा चर्चित रहता है। यह चर्चा सिर्फ इसीलिए नहीं कि इस रास्ते से होकर सरकारी मदिरालय और ओपन मयखाना पहुंचा जा सकता है। रेसिंग ट्रैक बन चुकी इस सड़क पर आए दिन हादसों में लोगों की हडि्डयां टूटती है। इस सड़क पर नाली भी इसी हिसाब से बन रही है, जिसके निर्माण की सुस्त रफ्तार सरकारी पंचवर्षीय योजना के टक्कर की है। दो साल में भी यह नाली बनकर तैयार नहीं हुई, अभी 3 साल और बाकी हैं। नगर पालिका के पार्षद तक यह नहीं बता पा रहे हैं कि यह नाली पीडब्ल्यूडी की है, या नगर पालिका की। चूंकि सड़क चौड़ीकरण पीडब्ल्यूडी के गीदम सब डिवीजन ने करवाया था, इसलिए अनुमान के आधार पर कुछ लोग नाली का ठीकरा पीडब्ल्यूडी पर फोड़ते हैं, कुछ लोग इसे पालिका का काम बताते हैं। बहरहाल, यह गहरी और आधी-अधूरी नाली टेकनार रोड की रेसिंग ट्रैक में हडि्डयां तुड़वाने का सहायक उपक्रम बन गई है।
मरा हाथी भी सवा लाख का!
एक कहावत है कि मरा हुआ हाथी भी सवा लाख का होता है, पर यहां तो जर्जर व खतरनाक हुए भवन को ढहाने का खर्च ही इतना ज्यादा बताया जा रहा है कि नगरीय निकाय के हाथ-पांव फूल गए हैं। मामला दंतेवाड़ा में 80 के दशक में बनाए गए साडा कॉम्प्लेक्स भवन का है। इस भवन को कालातीत घोषित कर खाली तो करवा दिया गया है, लेकिन अब तक ढहाया नहीं गया। खबर है कि इसके डिसमेंटल का अनुमानित खर्च ही करीब 7 लाख बैठ रहा है, जिससे कम रकम उस जमाने में इस भवन के निर्माण पर खर्च हुई थी।