साप्ताहिक व्यंग्य कॉलम भाग-21
शैलेन्द्र ठाकुर @ दंतेवाड़ा
दंतेवाड़ा-बैलाडीला सड़क की जो हालत है, उससे होकर सफर करना किसी त्रासदी से कम नहीं। आम जन तो परेशान हैं ही, सबसे ज्यादा दिक्कत महतारी एक्सप्रेस 102 एम्बुलेंस में पेश आ रही है। प्रसव पीड़ा से छटपटाती मातृ शक्तियों को इस सड़क से होकर हॉस्पिटल पहुंचाना किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं। वह दिन दूर नहीं, जब बैलाडीला इलाके के लोग लौह नगरियों से दंतेवाड़ा के बीच एयर एम्बुलेंस सेवा की मांग उठाने लगे। पिछली सरकार में विकास के कर्णधारों ने इस सड़क पर होने वाले कष्टों को ‘विकास की प्रसव पीड़ा’ बताते कुछ दिन और सहन करने की सांत्वना देने में कमी नहीं की। पुरानी सरकार तो निपट गई, लेकिन अब जबकि सरकार बदले हुए एक चौथाई साल साल हो चुका, सड़क की प्रसव पीड़ा समाप्त नहीं हुई। विकास नामक शिशु का जन्म न तो नॉर्मल जचकी से हो पाया है, और न ही सीजेरियन आपरेशन हो सका है।
स्वागत द्वार या आफत को न्यौता?
दंतेवाड़ा नगर के प्रवेश पर कारली में स्वागत द्वार के निर्माण का आगाज़ जिस धूम-धड़ाके के साथ हुआ था, उसका काम अब उतनी ही तेजी से ठंडे बस्ते में जा चुका है। जानकारों की मानें तो कुल राशि के 40 फीसदी का 25 फीसदी यानी काम का 10 फीसदी दशवंद निकालने लायक काम हो चुका, अब इसके आगे क्या होगा, यह बताने वाला भी कोई नहीं रहा। इस एक्सीडेंटल जोन में पुराने स्वागत द्वार के बीच वाले पिलर से टकराकर पहले भी कई लोग हड्डियां तुड़वा चुके थे, कुछ ने तो जान भी गंवाई, जिसका ठीक हिसाब किसी के पास नहीं है । अब नया आधा-अधूरा स्वागत द्वार भविष्य में क्या गुल खिलाता है, यह तो समय ही बताएगा।
शिक्षा विभाग और इंजीनियर गुरुजी
नई सरकार ने अब ऐलान कर ही दिया है कि शिक्षा विभाग का अपना निर्माण विंग होगा। साफ है कि इससे पीडब्ल्यूडी, आरईएस जैसे निर्माण विभागों पर तकनीकी निर्भरता तो कम होगी ही, तकनीकी मॉनिटरिंग पर खर्च होने वाले “कमीशन” में भी कटौती हो जाएगी। अब सवाल यह है कि शिक्षा विभाग इस निर्माण विंग के लिए इंजीनियरों की भर्ती करेगा या फिर आरजीएम के पिछले ‘स्वर्ण युग’ में लाखों-करोड़ों के निर्माण कार्यों का अनुभव रखने वाले गुरुजियों से काम चलाएगा।
टुकड़े-टुकड़े में बिल्डिंग, तो फिर सड़क क्यों नहीं?
दंतेवाड़ा जिले में सड़क निर्माण कार्य टुकड़ों में करवाए जाने पर बड़ा बवाल मचा हुआ है। लेकिन बचाव पक्ष की इन दलीलों को भी नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता है कि जब करोड़ों के अस्पताल भवनों को टुकड़ों में बांटकर काम दिया जा सकता है, तो फिर सड़क को क्यों नहीं? सच ही तो है- महोदय ने
“इस दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहां गिरा, कोई वहां गिरा..” की तर्ज पर कुआकोंडा और कटेकल्याण के चार करोड़ी हॉस्पिटल भवनों का पीस वर्क करवाया था, तब कहीं जाकर झूलते-लहराते कॉलम वाला अनोखा हैंगिंग हॉस्पिटल भवन बनने लगा था।
फिर अटका हनुमानजी का श्रृंगार
शक्तिपीठ परिसर में 51 फीट ऊंचे बजरंग बली के श्रृंगार यानी रंग-रोगन के लिए डीएमएफ से राशि मिलने का इंतजार लंबा खिंच गया है। राशि नहीं मिलने से कलाकार काम शुरू नहीं कर पा रहे हैं। यह पहला मौका नहीं है, जब बजरंगबली की प्रतिमा को डीएमएफ की राशि का इंतजार करना पड़ रहा है, शुरुआती दौर में नींव खुदाई के बाद राशि का ऐसा संकट आन पड़ा कि काम शुरू ही नहीं हो पा रहा था। बवाल मचने के बाद महोदय ने कोष से डीएमएफ की राशि ढीली की, तब जाकर हनुमानजी दक्षिणमुखी रूप में साकार हुए। लेकिन महोदय को यहां से विदा होना पड़ा। इसके आगे रंग-रोगन करने में फिर वही आर्थिक तंगी सामने आ गई है। यानी ऐतिहासिक फागुन मेला में भी बजरंग बली की प्रतिमा का अनावरण होना मुश्किल है।
जो हाल दिल का उधर हो रहा है…
कहते हैं कि समय कभी एक जैसा नहीं रहता है। कुछ समय पहले तक अपनी पहुंच, कूटनीति और ‘महोदय’ का राइट हैंड होने के बूते पर जिले में एक छत्र राज करने वाले छोटे महोदय इन दिनों लूप लाइन में हैं। सरकार बदलने के बाद जिला पंचायत में वापसी हो गई और अब फाइलें ढोने और फॉरवर्ड करने का काम ही बाकी रह गया है। बड़े महोदय पहले ही पेवेलियन वापस बुला लिए गए थे, जो खुद एक्स्ट्रा प्लेयर की भूमिका में समय काट रहे हैं। यानी जो हाल दिल का उधर हो रहा है, वो हाल दिल का इधर हो रहा है…
भैया ..! ये दीवार टूटती क्यों नहीं…??
टीवी पर सीमेंट के एक विज्ञापन की पंच लाइन बड़ी मशहूर थी- भैया.. ये दीवार टूटती क्यों नहीं है.. ठीक ऐसा ही अनुबंध दंतेवाड़ा के कैफेटेरिया का है। सी-मार्ट के नाम पर अफसरों ने एक बार जो अनुबंध कर दिया, वो मियाद पूरी होने के बाद भी जारी है। लोकल फ़ॉर वोकल का नारा देने वाली सरकार ठेले-खोमचे वालों को तो लगातार सड़क पर से खदेड़ती रही है कि कहीं वो जगह पर कब्जा न कर लें, वहीं दूसरी तरफ बड़े रेस्तरां-मेस में लोकल पार्टियों को मौका देना ही नहीं चाहती।
चलते-चलते…
फागुन मेला की तैयारी बैठक तो हुई लेकिन विवादास्पद रेलिंग हटाने के मामले पर सवाल अनुत्तरित ही रह गया।
अब ऐतिहासिक फागुन मेला शुरू होने में कुछ ही दिन बाकी रह गए हैं, मेले की दुकानें सड़क पर लगेंगी, या फिर रेलिंग हटाकर, यह अब तक तय नहीं हुआ।