जब सुरक्षा ही बन गई आफ़त! ( 🏹 शब्द बाण🎯 )

 

 

शैलेन्द्र ठाकुर ✒️

साप्ताहिक व्यंग्य कॉलम (शब्द बाण-9)

कब मिलेगी अहिराज सर्प से मुक्ति?

दंतेवाड़ा के रेल्वे फाटक की आफत से सब परेशान हैं। बस, कुछ मिनट के फासले पर जहरीले अहिराज सर्प की तरह काली-पीली पट्टी वाला बैरियर सड़क पर अड़ जाता है, जो इस सड़क से गुजरने वाले लोगों के बेशकीमती समय को बार-बार डस लेता है। हैरानी की बात यह है कि इस मुद्दे पर स्थानीय स्तर पर सिर्फ आम आदमी पार्टी ने ही अब तक आवाज़ उठाई है। आचार संहिता लगने से पहले धरना-प्रदर्शन कर उसने भाजपा-कांग्रेस से बढ़त हासिल कर ली थी।
बस्तर सांसद दीपक बैज ने जरूर लोकसभा में शून्यकाल के दौरान इस रेल्वे फाटक पर ओवरब्रिज की मांग उठाई थी, लेकिन 3 साल बीतने पर भी इस पर कोई एक्शन नहीं नजर आया।
अब तो लाइन दोहरीकरण कार्य भी अंजाम के करीब है और दूसरी लाइन करीब-करीब बिछ चुकी है। यानी फाटक पर डबल आफत की शुरुआत होने वाली है।

सुरक्षा या आफत??
विधानसभा चुनाव के लिए चुनिंदा भाजपाइयों को केंद्र सरकार ने सीआरपीएफ की सुरक्षा मुहैया करवा दी। भाजपा के केंद्रीय नेताओं को कथित तौर पर राज्य सरकार की नीयत पर शक जो था। थोड़ी ना नुकुर करते ज्यादातर नेताओं ने गार्ड्स ले तो लिया, बाद में अपने दांए-बाएं चलते बंदूक धारियों के बीच इठलाते हुए चलना स्टेटस सिंबल बन गया। इवनिंग-मॉर्निंग वॉक तक बंदूकों के साए में होने लगे।
लेकिन अब उनके खर्च उठाने में पसीने छूट रहे हैं। साथ चलने वाले गार्ड्स के चाय-नाश्ता और भोजन पर अतिरिक्त खर्च हो रहा है। चुनाव प्रचार के वक्त पार्टी दफ्तरों और कार्यक्रम स्थल पर भोजन-पानी का इंतजाम था, तो कोई चिंता नहीं थी।
मतदान समाप्ति के बाद चुनावी दफ्तर और भंडारा नुमा व्यवस्था बंद होने से अब अपना बटुआ ढीला करने की नौबत आ रही है। कुछ नेताओं की हालत इतनी पतली हो गई है कि फॉलो वाहन का पंचर तक बनवाने में आनाकानी करने लगे हैं। आलम यह है कि यह अतिरिक्त आफत न तो उगलते बन रही है, न निगलते। सुरक्षा छूटी तो स्टेटस का क्या होगा, नहीं छूटी तो पॉकेट का क्या होगा?

अब इस आफत से उबरने 31 दिसंबर तक की मियाद पूरी होने का इंतजार कर रहे हैं।

तारीख करीब आते-आते बढ़ी धड़कनें

चुनावी समर में अपना सब कुछ झोंक चुके उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला मतदाता कर चुके हैं, सिर्फ इसकी गिनती और औपचारिक घोषणा ही 3 दिसम्बर को होनी है। यह तारीख आने में बमुश्किल एक सप्ताह का समय ही बाकी रह गया है। ऐसे में उम्मीदवारों और उनके समर्थकों की धड़कनें तेज होने लगी है। ज्यादातर उम्मीदवार चुनावी फसल के बाद खेतों की फसल कटाई में खुद को व्यस्त रखने या फिर सैर-सपाटे के जरिये तनाव पर काबू पाने के प्रयास में जुटे हैं।
ऐसा नहीं है कि चुनाव परिणाम का इंतजार सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र से जुड़े लोग ही कर रहे हैं। निजी और सरकारी तंत्र के लोग भी सीट बेल्ट बांधकर इस पर नजरें गड़ाए हुए हैं।

किस करवट बैठेगा दंतेवाड़ा का ऊंट??

दंतेवाड़ा में वोटिंग का रुझान वाला ऊंट किस करवट बैठेगा, यह तो 3 दिसम्बर को ही पता चल पाएगा। लेकिन एक बात तो तय है कि दंतेवाड़ा सीट के मतदाताओं ने बड़े मुद्दों से ज्यादा चेहरों पर ध्यान देकर वोटिंग की है। इनमें उम्मीदवारों और सीएम के चेहरे के अलावा एक चेहरा प्रशासन का भी है और यह फैक्टर किसके पक्ष में काम कर गया है, सत्ता पक्ष में या विपक्ष में, इसका अंदाज़ा ठीक-ठीक लगाना फिलहाल मुश्किल है। वैसे भी सरकार के पिछले कार्यकाल में तो यह समझ से परे ही रहा कि कौन सी पार्टी विपक्ष या सत्ता पक्ष में है? चला-चली की बेला में विपक्ष के लोग ज्यादा लाल दिखे।

पड़ोसी जिले की सीटें फंसी
विधानसभा चुनाव में परिणामों का मामला पेचीदा होता जा रहा है। जिन सीटों को कांग्रेस व भाजपा ने अपने लिए ज्यादा आसान मान लिया था, वही सीटें मतदाताओं का रूख देखने के बाद फंसी हुई नजर आ रही हैं। कांग्रेस के लिए पूर्व में सबसे आसान समझी जा रहीं बीजापुर, बस्तर, कोंटा और चित्रकोट जैसी सीटें भी अनिश्चित हो गई हैं। 5 बार के अपराजेय योद्धा लखमा दादी तक की चिंता इस बार बढ़ी हुई है। परिणाम का ठीक-ठीक अंदाज़ा लगाना मुश्किल हो गया है। इसी तरह भाजपा के लिए सबसे आसान समझी जा रही दंतेवाड़ा सीट भी बहुकोणीय संघर्ष के चलते फंस गई है। परिणाम को लेकर दोनों ही पार्टियां आश्वस्त हैं। अब यह फील गुड फैक्टर कितना सटीक साबित होगा यह तो वक्त ही बताएगा।

खाओ सबकी, करो मन की

पिछले कुछ चुनावों से दक्षिण बस्तर के मतदाताओं में जागरूकता का स्तर काफी बढ़ गया है। यही वजह है कि मतदान प्रतिशत में पहले से कहीं ज्यादा इज़ाफ़ा हुआ है। वहीं, दूसरी तरफ ग्रामीण इलाकों में पहले चुनावी बकरा-भात और कैश से मतदाताओं को साधने की परंपरा रही है, वहां भी समयानुकूल जागरूकता दिखाई पड़ने लगी है, जो चुनावी उपहार लेने में अब पार्टीगत भेदभाव नहीं करते। बस, वोट अपनी मर्जी से करते हैं। यानी, खाओ सबकी, करो मन की। अब तो आयोजक-प्रायोजक भी परिणाम आने तक आश्वस्त नहीं रहते कि उनकी मेहनत ने क्या रंग दिखाया होगा।

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