चुनावी साल में गौ माता की उपेक्षा (शब्द बाण 🏹🎯)

✒️ शैलेन्द्र ठाकुर

(साप्ताहिक व्यंग्य कॉलम)

चुनावी साल में भूखी रह गई गौमाता

कका ने पिछला चुनाव जीतते ही सॉफ्ट हिंदुत्व पर फोकस किया और भाजपा से ‘राम’ व ‘गौ माता’ का मुद्दा हथिया लिया। राम वन गमन पथ, नरवा-गरवा-घुरवा, गोठान, गोबर-गोमूत्र खरीदी से सुर्खियां तो खूब बटोरी, लेकिन अंततः ‘चुनावी वैतरणी’ पार करने के समय गौमाता की पूंछ छोड़ दी। इसका क्या अंजाम होगा, ये तो अब 3 दिसंबर को ही पता चल पाएगा।

दरअसल, चुनावी कसरत में उलझी सरकार इस बार दीपावली पर गोवर्धन पूजा करवाना भूल गई। अफसरों ने भी दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसके पहले बीते 3-4 साल से हर बार गोवर्धन पूजा गोठानों में धूमधाम से हुई।

इस बार गौमाता और ग्रामीण राह तकते रह गए। आचार संहिता लागू होने की आड़ में गायों को घास का एक गट्ठर तक नहीं खिलाया गया। एक पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा भी था कि अफसर सूरजमुखी होते हैं, जिसकी सरकार हो, उसकी तरफ चेहरा घुमा लेते हैं। फिलहाल चुनावी दौर में सूरजमुखियों को भी संशय है कि सरकार किसकी बनने वाली है। लिहाजा, यह दिक्कत है कि मौजूदा सरकार की योजना को आगे बढ़ाएं, या फिर सूरज निकलने का इंतजार करें।

52 परियों के नृत्य में खलल

दक्षिण बस्तर में इस बार दीपावली सीजन में 52 परियों (पत्तियों) के नृत्य पर खलल पड़ा है। थाना प्रभारियों पर पुलिस कप्तान की सख्ती का असर साफ दिखा है।

पहली बार अमूमन सभी थाना क्षेत्रों से पुलिस की सफलता के किस्से और वीर गाथाएं मीडिया में अपलोड हो रही हैं कि किस तरह 52 परियों का नृत्य देखने वालों को दौड़ा-दौड़ा कर पकड़ा गया। जिन इलाकों में नक्सली एम्बुश के डर से पुलिस नहीं पहुंचती थी और वहां बेखौफ जुए के फड़ लगते थे, उन इलाकों में भी अब जवान देर रात पहुंचकर धर-पकड़ कर रहे हैं। इससे बेचारे वो हितग्राही परेशान हैं, जो दीवाली पर इस रास्ते से समृद्धि आगमन की चाह रखते हैं।

जीत के दावे अनेक

दंतेवाड़ा विधानसभा सीट पर मतदान सम्पन्न हो गया और जीत के दावे भी उम्मीदवार करने लगे हैं। सबको अपनी-अपनी जीत की उम्मीद है। इस सीट पर तीन प्रमुख उम्मीदवारों के बीच कांटे की टक्कर हुई और तीनों ही जीत को लेकर आश्वस्त हैं। कॉपी-पेन और कैलकुलेटर लेकर हिसाब-किताब जारी है। अपने पाले में आने वालों के साथ ही भीतर घातियों की पतासाजी चल रही है।
जीत की लीड को लेकर भी पुख्ता दावा किया जा रहा है, लेकिन जनता-जनार्दन के आदेश का पता तो 3 दिसम्बर को ही चल पाएगा। आखिर सिकन्दर तो किसी एक को ही बनना है।

चुनावी भोज की वेलिडिटी

इस बार चुनाव आयोग की सख्ती के चलते दक्षिण बस्तर में चुनावी बकरा-भात के मामले कम जरूर हुए, लेकिन रिवाज खत्म नहीं हुआ। प्रेशर कुकर के मशहूर विज्ञापन ” खाए जाओ, खाए जाओ, फलां-फलां — के गुण गाए जाओ” की तर्ज पर खेल खूब तो चला है। आयोजक-प्रायोजक भी आश्वस्त हैं। लेकिन एक आशंका यह भी है कि बेचारे बूथ के भीतर जाकर सही बटन दबाकर आए या नोटा बाबा को। असली गणित तो नोटा बाबा ही तय करेंगे।
एक मित्र ने अपना दिलचस्प अनुभव साझा करते बताया कि भोज का असर 12 से 72 घण्टे तक ही रहता है। इसके बाद छोटी आंत-बड़ी आंत का काम खत्म हो जाता है। फिर कृतज्ञता वाला भाव भी खत्म। इसलिए भोज को वोट में कन्वर्ट करना हो तो समय सीमा का ध्यान रखना भी जरूरी होता है। यानि एलोपैथी दवाओं की तरह चुनावी बकरा-भात की भी कोई वेलिडिटी होती है। तीन दिन से पहले दिया गया भोज बेअसर होने की आशंका रहती है।

चुनाव के बाद छुट्टी का माहौल

पहले चरण में ही मतदान सम्पन्न होने से दक्षिण बस्तर में अब छुट्टी का माहौल बन गया है। दीपावली मनाने का मौका मिलने से अफसर-कर्मियों के साथ नेता भी खुश हैं। नेताओं को मलाल इस बात का है कि राज्य के बाकी 70 सीट के लिए चुनाव प्रचार करने नहीं जा पाए। अब दीपावली मनाकर ही काफिला आगे बढ़ेगा। वैसे कुछ ने तो मतदान के बाद ही रवानगी डाल दी थी, ताकि अपनी हाजिरी लगाकर लौट सकें।

देर से लगी लॉलीपॉप की झड़ी

इधर दक्षिण बस्तर में चुनाव निपटते ही पार्टियों के चुनावी लॉलीपॉप की झड़ी लग गई है। तेंदूपत्ते व धान के भाव की बोली लगने के बाद महिलाओं को 12 हजार रुपए सालाना देने का मामला शेयर मार्केट की तरह उछलकर अब 15 हजार रुपए तक पहुंच गया है। जबकि, यहां पहले चरण के मतदान होने तक पार्टियों ने अपने पत्ते खोलने में देर कर दी थी, जिसका फायदा नहीं मिल पाया। अब शिक्षित व जागरूक वोटर्स खिसियाए हुए हैं। हालांकि, इस इलाके के ग्रामीण वोटर्स पर चुनावी घोषणापत्र और इसके लोक लुभावन वादे कोई खास असर नहीं डालते हैं। यही वजह है कि पिछले कई वादों के अंजाम को लेकर भी कोई सवाल नहीं उठते हैं।

इस बार शिल्पकार पिंजरे के अंदर

दंतेवाड़ा नगर में अतुल्य दंतेवाड़ा की परिकल्पना साकार होने से पहले ही बहुचर्चित हो रही है। सड़क किनारे प्लेटफॉर्मनुमा नाली के ढक्कन को अवैध कब्जे से बचाने के लिए लगाई गई लोहे की जाली के चलते बेचारे ग्रामीण शिल्पकार परेशान हैं। कभी इस जाली से बाहर पसरा लगाकर सामान बेचते हैं, तो कभी इस पिंजरानुमा जाली के भीतर बैठकर। जन्माष्टमी, पोला, तीज, गणेश चतुर्थी पर इस पिंजरे के आस-पास फटकने नहीं दिया गया। जमकर छीछालेदर होने के बाद अब दीवाली पर पिंजरे के अंदर बैठने की इजाजत दे दी गई। इस स्थिति से ठेला-खोमचा लगाकर घर चलाने वाले भी परेशान हैं। शहर में यह चर्चा आम है कि त्रिशंकु की तरह अधर में लटके पीड़ितों के कोप का भाजन चुनाव में सत्ताधारी पार्टी को खामखां बनना पड़ा है। यानि करे कोई और भरे कोई।

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