जब हॉस्पिटल ही खुद बीमार हों.. (शब्द बाण -42)

जब हॉस्पिटल ही खुद बीमार हों..  (शब्द बाण -42)

 

साप्ताहिक व्यंग्य कॉलम शब्द बाण (भाग-42)

शैलेन्द्र ठाकुर @ दंतेवाड़ा

इस वक्त दंतेवाड़ा जिले में स्कूलों की जैसी हालत है, उससे भी बदतर स्थिति हॉस्पिटल भवनों की है। गीदम में मातृ-शिशु केअर हॉस्पिटल की सीलिंग तक गिर गई। अब कोई सामान्य दफ्तरी काम होता तो लोग हेलमेट पहनकर भी बैठ सकते थे, हॉस्पिटल में मरीजों के लिए यह ऑप्शन संभव नहीं हो सकता। अब पूरे शरीर को ही कवच पहनाना तो मुमकिन नहीं, जिससे बिस्तर पर भी सुरक्षित रह सकें। हॉस्पिटल तो हॉस्पिटल गीदम ब्लॉक में स्वास्थ्य सेवाओं को नियंत्रित करने वाला बीएमओ दफ्तर खुद ही किसी बड़ी सर्जरी के इंतजार में है। दीवारों पर पेड़ उग आए हैं। कर्मचारियों के पास छाता तानकर काम करने जैसी मजबूरी है।
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हरेली पर गेड़ी को भूले नेता-अफसर

इस बार हरेली अमावस पर नेता-अफसरों में गेड़ी चढ़ने का उत्साह गायब रहा। सीएम रहते भूपेश कका ने कम से कम छतीसगढियावाद को बढ़ावा देने में तो कोई कसर नहीं छोड़ी थी। कका को हथेली पर भौंरा की तरह पूरे सिस्टम को नचाने में महारत हासिल थी। कका के कार्यकाल में हरेली पर गोठानों में पहुंचकर गेड़ी चढ़ने, गोवर्धन पूजा पर गौमाता को खिचड़ी खिलाने, मई दिवस पर बोरे बासी खाकर फ़ोटो खिंचवाने और सोशल मीडिया पर अपलोड करने की होड़ मची रहती थी, ताकि गुड बुक में आ सकें। यह बात और है कि गरमा गरम भात के पैकेट होटल से मंगवाकर ही सही, कम से कम उसे पानी मे बोरकर खाने का उपक्रम करते लोग दिखते तो थे। कका की सरकार के बगैर पहली हरेली अमावस पर लोगों का यह उत्साह गायब रहा। वैसे भी जनता की गाढ़ी कमाई से बनाए गए गोठान अब जंगली झाड़ियों से पट चुके हैं, उनका कोई नामलेवा भी नहीं दिखता।

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एनएमडीसी अफसर देवदूत कैसे?

बैलाडीला में डेम फूटने से आई आपदा से पीड़ित लोग हलाकान हैं। घर टूटने से बेघर हुए और माल-असबाब बहने से जो नुकसान हुआ, उसकी पीड़ा वो ही समझ सकते हैं। इन सबके बीच एनएमडीसी के कुछ अफसरों की हरकतें भी लोगों की आंखों में खटकने लगी है, जो कुछ औपचारिक व खानापूर्ति वाली मदद कर खुद को ‘देवदूत’ बताकर पेश करवाने में पीछे नहीं है। सवाल यह उठता है कि जिस एनएमडीसी की वजह से इतना बड़ा हादसा हुआ, उसके अफसर “देवदूत” कैसे हो गए? उनका यह नैतिक दायित्व तो बनता है कि न सिर्फ बचाव और मदद में तत्परता दिखाएं, बल्कि पीड़ितों को मुआवजा और पुनर्वास से राहत पहुंचाएं। डेम फूटने के लिए न सिर्फ एनएमडीसी, बल्कि पालिका और स्थानीय प्रशासन के बीच तालमेल की कमी साफ तौर पर जिम्मेदार है।
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गले की फांस बनी पीएम सड़कें

दंतेवाड़ा जिले में प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना की जितनी कहानियां लिखी जाएं, उतनी कम हैं। कई सड़कें डेढ़ दशक से भी ज्यादा समय से अधूरी पड़ी हैं, तो कई सड़कें अपने आप उठकर दूसरी जगह चली गई हैं, यानी नाम कहीं, सड़क कहीं। नक्सल समस्या ग्रस्त बताकर अधूरी छोड़ने और मनमाने बिलिंग करने का पुराना रोग इसे छोड़ता नहीं है। पार्टी के जिस संस्थापक सदस्य अटल विहारी वाजपेयी जी ने प्रधानमंत्री रहते पीएम ग्राम सड़क योजना का ड्रीम प्रोजेक्ट लांच किया था, उनके ही सपने को पूरा करने में भाजपाई सरकार दिलचस्पी नहीं दिखाती है। उनके जन्म जयंती पर भाजपाई कुछ जगह फल वितरण कर फूले नहीं समाते हैं, पर वाजपेयी जी के ड्रीम प्रोजेक्ट की सुध तक नहीं लेते।
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ट्रांसफर लिस्ट से कहीं खुशी, कहीं ग़म

आईएएस अफसरों की ट्रांसफर लिस्ट आई तो दंतेवाड़ा जिले के लोगों में काफी उत्सुकता दिखी। लोगों ने सोशल मीडिया पर ट्रांसफर की सूची को कई बार उलट-पलट कर देखा, शायद देखने में कोई चूक हो रही हो, लेकिन मायूसी ही हाथ लगी। कका कालीन अफसर का नाम इस सूची में नहीं था। हाल ही में प्रभारी मंत्री द्वारा आड़े हाथों लिए जाने के बाद जो उम्मीदें जागी थी, उन पर पानी फिर गया। बीजापुर जिले के कलेक्टर का नाम जरूर ट्रांसफर लिस्ट में आ गया, वह भी भाजपा नेता के साथ तू-तू मैं-मैं के तुरंत बाद। यह भी गज़ब संयोग रहा कि 4 दिन के भीतर ट्रांसफर करवा देने की धौंस जमाने के दौरान ही 20 अफसरों की ट्रांसफर सूची में नाम चढ़ गया, जिसे लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म है। समर्थकों में मायूसी है, तो विरोधियों की बल्ले-बल्ले हो गई है। वैसे अपनी तेज-तर्रार छवि और साफगोई से कलेक्टर साहब ने कम समय में ही अपनी अलग पहचान बनाई।
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हॉस्टल का तबादला !!

जी हां! गीदम में पोस्ट मैट्रिक आदिवासी बालक छात्रावास का तबादला यानी शिफ्टिंग दूसरी जगह स्थित एजुकेशन सिटी जावंगा में हो गया है। अब बच्चों के स्कूल से छात्रावास की दूरी करीब ढाई से 3 किमी हो गई है। इतनी दूर से उन्हें रोजाना पैदल चलकर आना जाना होगा।दरअसल, छात्रावास भवन की छत के प्लास्टर का मलबा बिस्तर पर एक छात्र के ऊपर गिरने के बाद ट्राइबल विभाग ने यह ‘तत्परता’ दिखाई। इसके पहले पिछले सीजन में भी एक छात्र के सीने पर मलबा गिरा था, तब छात्रों की शिकायत दब गई थी। अधीक्षकों से बराबर ‘दशवंद’ का चढ़ावा वसूलने वाले अफसरों के कानों पर पहले ऐसी शिकायतों की जूं तक नहीं रेंगती थी। अब निजाम बदला और अफसर बदले तो फरियाद बहुत तेजी से सुनी गई। देखना यह है कि ऐसी तत्परता कब तक बनी रहती है?
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सत्ता प्रवाह की बदली दिशा
स्वास्थ्य विभाग में जिले के मुखिया यानी सीएमएचओ हाल ही में बदले गए। इस बार विपरीत दिशा यानी बीजापुर से अफसर लाए गए हैं। इसके पहले कुछ साल तक सिर्फ सुकमा जिले से अफसर यहां लाए जाते रहे हैं। कलेक्टर से लेकर सड़क, इंसानों और मवेशियों के स्वास्थ्य की चिंता करने वाले विभाग तक की जिम्मेदारी के लिए सुकमा के अनुभव को तरजीह दी जाने लगी थी। आखिर हो भी क्यों ना! कका सरकार में कद्दावर मंत्री रहे दादी के जिले में काम करना किसी डिग्री/डिप्लोमा को हासिल करने से कम नहीं होता। खैर, समय और सरकार बदलने के बाद पॉवर प्रवाह की दिशा बदलना लाजिमी था। देखना यह है कि इसके क्या दूरगामी परिणाम होते हैं।

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